समर्थों का सहयोग (Kahani)

September 1991

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बापू ने देश के लिए नव युवकों का आह्वान किया। कितने ही कालेजों और नौकरियों का परित्याग करके आये। विभिन्न रचनात्मक कार्यों में लगा दिया गया। इन्हीं में एक युवक था मधुकर। इसे पंतपुर कुष्ठाश्रम में सेवा करने के लिए लगा दिया गया।

यह मान्यता थी भारत में ऊपर से नीचे तक। अब ऊँच नीच और छूतछात की भावना भरी है। सेवा कार्यों में वे हेठी समझते हैं। ईसाई मिशन के अतिरिक्त कुष्ठ जैसे गंदे रोगों के रोगियों की सेवा करने के लिए कोई तैयार नहीं होता। मधुकर जी ने इस मान्यता को गलत सिद्ध करके दिखा दिया।

मधुकर जी बापू द्वारा सोचे गये उस काम में पुरी तरह रम गये। उनके प्रयास से एक से बढ़कर अनेक कुष्ठाश्रम चले और उनमें अच्छे होकर कितने ही रोगी निरोग तथा स्वावलम्बी बने।

व्यक्तित्व एक चुम्बक है जो अपने स्तर की वस्तुओं को खींचता और इर्द-गिर्द जमा करता है, चिन्तन, चरित्र, व्यवहार और स्वभाव विनिर्मित करना मनुष्य के अपने हाथ की बात है जो अपने व्यक्तित्व को निखार सकता है। उसे दूसरों का विश्वास अर्जित करने में देर नहीं लगती है। विश्वासी को सहयोग मिलता ही है। सहयोग एक पूँजी है जो अपने निज की सम्पदा की तरह काम आती है। बैंक से ऋण लेकर भी अपना उद्योग चलाया जा सकता है। दूसरे समर्थजनों के स्नेह, परामर्श एवं सहयोग मिलता ही है। सहयोग से भी प्रगति पर बढ़ चलने का अवसर मिल सकता है। छोटी स्थिति से ऊँचे बढ़ सकने में जो सफल हुए है उन्होंने अपने स्तर को उठाया और समर्थों का सहयोग पाया है। यह मार्ग हर किसी के लिए खुला हुआ है।


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