ईश्वर विश्वास और उसके फलितार्थ

September 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सृष्टिक्रम नियम व्यवस्था के साथ चल रहा है। ग्रह तारक अपनी-अपनी धुरी और कक्षा पर बिना एक क्षण का भी आगा पीछा किए सतत् चलते रहते हैं। प्राणी और बीज अपने अनुरूप ही सन्तति उत्पन्न करते हैं। दिन-रात और ऋतु परिवर्तन के क्रम में एक सुव्यवस्था बनी हुई है। इसी प्रकार कर्मफल भी एक दैवी व्यवस्था है। दूध को दही बनने में, बीज को पल्लवित होने में कुछ समय तो लग जाता है किन्तु कृत्यों के अनुरूप भले बुरे प्रतिफल निश्चित रूप से उपलब्ध होते रहते हैं। यदि ऐसा न होता तो यहाँ जंगल का कानून चलता। “जिसकी लाठी तिसकी भैंस” वाली नीति का बोलबाला रहता। पर ऐसा है नहीं। प्रयत्न करने वाले पहलवान, विद्वान, धनवान, कलाकार आदि बनते हैं। नशा पीने वाले उन्मत्त बनते और विष खाने वाले प्राण गवाँ बैठते हैं। यह कार्य फल की सुनिश्चित व्यवस्था का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमें सदाशयता का परिचय देना और कुकर्मों से बचना चाहिए। पर प्रमाद तो प्रमाद ही ठहरा, अल्हड़पन की आदत भी मनुष्य को कम हैरानी में नहीं डालती। दूसरों को नशेबाजी के दुष्परिणाम भुगतते देखते भी मनुष्य उस खतरे का ध्यान नहीं देता और देखा देखी उसी कुटेव को अपनाने लगता है।

आत्मिक विकास इस स्तर का न होने से एक भारी कमी रह जाती है, कि उचित अनुचित का भेदभाव भी न बन पड़े किन्तु मनुष्य आमतौर से इसी प्रसंग में भारी भूल करता है। तत्काल फल मिलता रहा होता तो झूठ बोलने वाले के मुँह में छाले पड़ जाते। चोरी करने वाले के हाथ में लकवा मार जाता। व्यभिचारी नपुँसक हो जाते, तो न धर्म मर्यादा की आवश्यकता पड़ती और न ईश्वर को साक्षी बनाने की। यह छूट मनुष्य को इसलिए मिली है कि वह अपनी विवेक बुद्धि से काम ले। अपनी गौरव गरिमा को ध्यान में रखते हुए निर्णय ले। तो वस्तुतः स्वेच्छाचार की उद्धत अहंकार की प्रतिकृति है अनगढ़ व्यक्ति मर्यादाओं और वर्जनाओं की उपेक्षा करके स्वच्छन्दतापूर्वक संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित होकर वह करता रहता है जो उसे करना ही नहीं चाहिए। यही कारण है कि प्रगति की समस्त सुविधाएँ और संभावनाएँ रहते हुए भी लोग उलझनों में उलझते और संकटों के दल-दल में फँसे दिखाई पड़ते हैं। अन्य जीव चैन की जिन्दगी जी लेते हैं। पर मनुष्य को तो हर घड़ी विपन्न उद्विग्न स्थिति में रहना पड़ता है।

यह स्वेच्छाचार कैसे रुके? व्यक्ति शालीनता से अनुबंधित कैसे रहे? समाज में परस्पर सहयोग और सद्भाव का प्रचलन कैसे रहे? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर मिलता है कि किसी नियामक सत्ता का अस्तित्व वह सच्चे मन से अनुभव करे। उसे व्यापक और सर्वदर्शी माने तथा उसकी न्याय निष्ठ पर निश्चित विश्वास करे। इस भावना के साथ ईश्वर को मान्यता देना ही सच्ची आस्तिकता है।

ईश्वर को मानते और पूजते तो असंख्य हैं। पर उनकी मान्यता भ्रान्तियों से भरी होती है। फलतः उसका प्रतिफल जो सज्जनता और उदारता के रूप में प्रकट होना चाहिए, वह नहीं होगा। लोग ईश्वर को सभी मानवी दुर्बलताओं से घिरा हुआ एक ऐसा व्यक्ति मानते हैं जिसे अपने पक्ष में थोड़े से प्रलोभन या वाक् छल द्वारा सहज ही बहकाया, फुसलाया जा सकता है। उससे मन मानी मुराद पूरी करा लेने का षड़यंत्र रचते हैं। इसके लिए गिड़गिड़ाते हुए स्तोत्र पाठ भी करते हैं और यत्किंचित् पूजा पत्री के नाम पर उपहार भी प्रस्तुत करते हैं। भगवान प्रत्यक्ष दीखते तो शायद कुछ अधिक करने की हिम्मत भी की जाती पर एक ओर पूजन, दूसरी ओर अविश्वास का मन बनाए रहने से इतनी ही कुछ चिह्न पूजा की जाती है, जिसके निरर्थक चले जाने पर भी कोई बड़ा जोखिम न उठाना पड़े। यही विडम्बना है जो तथाकथित ईश्वर भक्ति के नाम पर लकीर पीटने जैसी चिह्न पूजा होती है। उसका प्रतिफल भी उस परम सत्ता के न्याय से कुछ उलटा सीधा हो, तो उसे अनायास ही मिला समझना चाहिए। क्योंकि ईश्वर के यहाँ अंधेरगर्दी नहीं है। उसकी न्याय तुला ही सबका यथोचित निर्णय करती है।

ईश्वर को न किसी से प्रेम है, न ईर्ष्या। न वह किसी पर वरदान बिखेरता है, न किसी को शाप देता है। उसकी विधि व्यवस्था का जो अनुशासन पालते हैं, वे सुखी रहते हैं। उन पर ईश्वर का प्रेम समझा जा सकता है। किन्तु जो मर्यादाएँ तोड़ते हैं, कुमार्ग पर चलते हैं, वे अपने कृत्यों का दुष्परिणाम भुगतते हैं। इसे ईश्वर की अप्रसन्नता कह सकते हैं। ईश्वर एक नियम अनुशासन है। वह स्वयं अपने नियमों से बँधा है और अन्य सभी प्राणी तथा पदार्थ उसी अनुबंध का पालन करने के लिए बाधित हैं। उनमें से किसी के साथ न कड़ाई बरती जाती है और न नरमी दिखाई जाती है। मनुहार या उपहार देकर उसे पक्षपात के लिए सहमत भी नहीं किया जा सकता। इसलिए प्रत्येक आस्तिक का कर्तव्य है कि ईश्वर को सर्वव्यापी न्यायकारी मानकर अपने चिन्तन और चरित्र को सही खरा बनाए रखे, उसमें न स्वेच्छाचार स्वयं बरते और न उच्छृंखलता किसी और को बरतने दे।

नियन्ता की क्षमताएँ असंख्य हैं, वे विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न प्रकार से सक्रिय होती रहती हैं। इसमें मानवी अन्तराल को प्रभावित करने वाली धारा सज्जनता और सदाशयता की है। उसे सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कह सकते हैं। सूर्य की धूप निकलते ही कमल के फूल खिलने लगते हैं। इसी प्रकार परब्रह्म का सान्निध्य होते ही मनुष्य के गुण-कर्म स्वभाव उत्कृष्टता की महक से महकने लगते हैं। भक्ति कोई भावुक आवेश नहीं है, जिसमें ईश्वर के दर्शन जैसा कोई आग्रह रोपा जा सके। जो सर्वव्यापी है, जो कण-कण में समाया हुआ है, वह स्वभावतः अपने पास भी है। बाहर के वातावरण में भरा हुआ है और अन्तरंग में अन्तःकरण में भी उसकी महत्ता ओतप्रोत है। अज्ञान के कारण ही वह दूर प्रतीत होता है। विवेक उभरने पर वह अति समीप दृष्टिगोचर होने लगता है।

विराट ब्रह्म भी ईश्वर का दृश्यमान स्वरूप है। शक्ति रूप सर्वव्यापी सत्ता का वास्तविक स्वरूप तो निराकार ही हो सकता है। ध्यान धारणा का आध्यात्मिक साधनापरक उद्देश्य पूरा करने के लिए कोई प्रतिमा बनानी पड़ती है। मनुष्य की कल्पना मनुष्य देहधारी भगवान ही रच सकता है। इसलिए अपनी मान्यता एवं श्रद्धा के अनुरूप अवतारों के रूप में देवताओं की छवि जैसी आकृतियों को मान्यता के अनुरूप ही सृजा गया है। इसीलिए “एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” के अनुरूप एक को ही बहुत रूपों में दृष्टिगोचर होने वाला कहा गया है।

ईश्वर का विराट् दृश्यमान स्वरूप यह विराट विश्व ही है। अर्जुन को, यशोदा, कौशल्या, काकभुशुंडि को इसी रूप में भगवान दर्शन हुए थे। चर्मचक्षुओं से यह रूप कोई भी कभी भी देख सकता है। विराट विश्व की पूजा, उसकी स्वच्छता प्रगति एवं सुसज्जा के रूप में ही की जा सकती है। अब की अपेक्षा अगला समय अधिक समृद्ध, समुन्नत, प्रगतिशील सुसंस्कृत हो इसके लिए प्राणपण से प्रयत्न करना यह विराट की


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118