भाव के भूखे हैं भगवान

September 1991

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“प्रिये! आज चौथा दिन है, किन्तु मैं कविता की एक पंक्ति के अन्तिम चरण को पूरा कर नहीं पा रहा हूँ। मेरे चिन्तन को हो क्या गया है! मेरी कल्पना अवरुद्ध क्यों हो गई? विचारणा में वह प्रवाह क्यों नहीं आ पा रहा है, जो कुछ दिन पूर्व था? बड़ी अजीब बात है! अन्तिम पद को मैं बिल्कुल सोच ही नहीं पा रहा हूँ। इसीलिए “गीत गोविन्द” की समाप्ति में विलम्ब हो रहा है और यह सोच-सोच कर मैं परेशान हो रहा हूँ।”

“इसमें परेशान होने की क्या बात है आर्य! पत्नी पद्मावती का सम्बोधन था-” आप अपने कृष्ण कन्हैया से क्यों नहीं कहते, वह तो पूरा करा ही देंगे। उनके लिए तो यह बायें हाथ का खेल है। आप ही ने तो कल एक पंक्ति सुनायी थी। वह पंक्ति . . . . हाँ, याद आ गई ‘सुकरं ते किमित्परि’, अर्थात् उसके लिए तो सब कुछ संभव है, दुष्कर नाम की चीज तो उसके कोश में है ही नहीं। तनिक मुसकराते हुए पद्मावती ने कहा।

“तुम भी खूब ठिठोली कर लेती हो!”

“ठिठोली नहीं देव! मैं तो सिर्फ यह बताना चाहती थी कि आज आप ऐसे चिन्तन में निमग्न हो गये हैं कि सुध-बुध ही खो बैठे।”

“सुध खो बैठा! “ -आश्चर्य प्रकट करते हुए जयदेव बोले “तुम कहना क्या चाहती हो देवि!”

“तनिक पूर्व दिशा की ओर आँखें उठा कर तो देखिए। अभी पता चल जायेगा।”

“ओह! सचमुच आज मुझे न रहा। भुवन-भास्कर इतने ऊपर चढ़ आये और पता तक न चला। अच्छा किया बता दिया, अन्यथा आज मेरे गोविन्द को देर तक भूखा रहना पड़ता।”

“पद्मे!” “हाँ, देव!”

“तनिक मेरी धोती, अंगोछा तो देना। मैं जल्दी से गंगा स्नान कर आऊँ, फिर गोविन्द के वन्दन-अभिनन्दन व भोग लगा कर भोजन विश्राम के पश्चात् उस श्लोक पर पुनः चिन्तन करूंगा।”

“हो सके तो तुम भी सोचना, ताकि मुझे कुछ सहायता मिल सके।” श्लोक का प्रथम चरण है-’स्मरगरल खण्डनं मम शिरसि मण्डनम्-’

इतना कह कर जयदेव तेजी से गंगा नदी की ओर चल पड़े। किन्तु अभी कुछ ही क्षण बीते होंगे कि वह पुनः लौट आये।

“पद्मे! पद्मे!!” तेज आवाज लगायी।

“आयी देव!” प्रत्युत्तर में मढ़ैया के अन्दर से स्वर उभरा।

“यह क्या!” विस्मय से भर कर भार्या ने कहा-”आप बिना स्नान किये लौट आये!”

“हाँ, देवि!” रास्ते में ही श्लोक का अन्तिम चरण स्मरण हो आया, इसलिए कहीं भूल न जाऊँ यह सोच कर लौट आया, थोड़ा ‘गीत गोविन्द’ तो देना। उसे पूरा कर लूँ फिर स्नान और पूजन-भजन के उपरान्त अपने आराध्य का भोग ग्रहण करूं।

पद्मावती ‘गीत गोविन्द’ उठा लायी, जिसे जयदेव ने इस प्रकार पूरा किया-

‘देहि में पदपल्लवमुदारम्’

फिर स्नान, भजन, पूजनादि से निवृत्त होकर भगवान का भोग ग्रहण किया और चारपाई पर विश्राम करने लगे।

पद्मावती पत्तल में बचा भोजन ग्रहण करने लगी, तभी उसने आश्चर्य से देखा कि जयदेव गंगा-स्नान से लौट रहे हैं उन्हें पत्नी के इस विचित्र आचरण पर बड़ा आश्चर्य है। आते ही वे बोले “यह क्या पद्मे! आज भगवान का भोग लगाये और हमें खिलाये बिना अन्न कैसे ग्रहण कर रही हो?”

पत्नी को भी अचम्भा हुआ। सोचने लगी आखिर यह सब हो क्या रहा है? कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ .....। इन्हीं चिन्तनों में खोयी वह पतिदेव की उपस्थिति से सर्वथा अनभिज्ञ हो गयी। पति के प्रश्न का जवाब देने के बजाय उसकी संज्ञा शून्य जैसी स्थिति बन गयी।

तभी “पद्मे! पद्मे!!” कह कर जयदेव ने उसे झकझोरा। अब उसकी तन्द्रा टूटी।

उसने अचकचा कर का- “आर्य! यह मैं क्या सुन रही हूँ! आज आपको हो क्या गया है! “ आश्चर्य में विनोद का पुट भरती हुई पद्मावती बोली “कहीं ऐसा तो नहीं, भोजन स्वल्प लेने के कारण भूख आज जल्दी ही उद्दीप्त हो उठी हो और आपने इसी कारण ऐसा करने का उपक्रम किया हो। वैसे अभिनय सशक्त रहा, इसमें दो मत नहीं हैं।”

“यह क्या कह रही हो तुम?” विस्फारित नेत्रों से पद्मे को देखते हुए जयदेव बोले।

“हाँ, ठीक ही तो कह रही हूँ।” पद्मा के ‘सस्मित वदन’ में आंखें कुछ विनोदपूर्ण मुद्रा में अठखेलियाँ कर रही थी।

जयदेव तनिक गंभीर होते हुए बोले “मैं तो अभी-अभी गंगा स्नान कर आ ही रहा हूँ और तुम बोल रही हो कि मैंने भजन-पूजन और भोजन भी कर लिया। लगता है तुम आज गोविन्द के भाव में कुछ अधिक ही बह गई हो।”

अब पद्मावती की आँखें खुली। उसने हास-परिहास

की मानसिकता त्याग विस्मय में पड़ कर कहा- “तो क्या देव! सब कुछ सच कह रहे हैं!”

“हाँ!” उत्तर मिला।

“किन्तु गंगा-स्नान के लिए निकलने के कुछ ही क्षण बाद लौट कर आपने तो कहा था कि आपको ‘गीत-गोविन्द’ की अन्तिम पंक्ति याद आ गई, इसलिए रास्ते से ही लौट आये एवं मैंने आपको गीत-गोविन्द लाकर दिया और आपने उसे पूरा कर डाला। फिर स्नानादि कर भोग ग्रहण किया और कक्ष में जा कर विश्राम करने हेतु चारपाई पर लेट गये।”

जयदेव यह सब सुनकर सकते में आ गये। कुछ क्षण खड़े-खड़े यत्किंचित् सोचते रहे, फिर कुटिया के उस भाग में गये, जहाँ वे प्रायः विश्राम करते थे। चारपाई को टटोल-टटोल कर भली-भाँति देखा, वह खाली पड़ी हुई थी।

अब रहस्य उनकी समझ में आ गया कि आज अवश्य ही माधव की कृपा हुई है और उनके चरण-कमल मढ़ैया की धूल को पवित्र कर गये हैं, वे मुसकराते हुए पत्नी के पास आये और बोले “अच्छा पद्मे! थोड़ा गीत-गोविन्द तो लाना। देखूँ, अन्तिम चरण की पूर्ति कैसे हुई है।”

पद्मावती ग्रन्थ ले आयी। जयदेव ने जब श्लोक का अन्तिम पद पढ़ा तो उनकी प्रसन्नता का चूडान्त न रहा। प्रेमाश्रु झर-झर उनकी आँखों से झरने लगे। वे नाचते हुए प्रेम में उन्मत्त भार्या के पास पहुँचे और सब कुछ कह सुनाया। इतना सुनना था कि पद्मा के नेत्रों से भी अविरल प्रवाह बह निकला। दोनों भाव विह्वल हो उठे। जयदेव माधव का बचा भोजन पत्तल से उठा-उठा कर प्रसाद मान खाने लगे। पत्नी ने लाख मना किया कि यह उसका उच्छिष्ट है, इसे न खायें पर उसकी एक न सुनी और भाव के अतिरेक में पत्नी का जूठन और श्रीकृष्ण का प्रसाद वे ग्रहण करते चले गये। इस बीच दोनों की आँखें अजस्र रूप से बहती चली जा रही थीं। जब प्रसाद समाप्त हुआ, तो दोनों ने प्रेमाश्रु से राधा-माधव की प्रतिमा को स्नान करा दिया। भाव जब कुछ कम हुआ तो दम्पत्ति द्वय पंच-प्रतिष्ठित मुद्रा में विग्रह के सामने न जाने कितनी दूर तक सिर टिकाये पड़े रहे।

जब शब्दों के अभिव्यंजना नहीं मिलती, तो वह प्रेमाश्रु बन कर बह निकलते और उसकी अभिव्यक्ति करते हैं। आज कवि जयदेव और उनकी पतिव्रता के साथ ऐसा ही कुछ घटित हुआ था।

शाम में जब उनकी मूर्छना टूटी, तो नीरवता को चीरते हुए दो वर्ण उभरे-

“तात!” स्वर पद्मावती का था।

“हाँ, भार्ये!” प्रत्युत्तर मिला।

“मेरे मन में एक जिज्ञासा उठ रही है। क्या आप उसका समाधान करेंगे?”

“अवश्य” संक्षिप्त सा उत्तर था।

पद्मावती ने शंका प्रकट की- “इन दिनों लोग कहते सुने जाते हैं, कि उनने कितनी ही मनौतियाँ मनायीं, रोये गिड़गिड़ाये, मनुहार किया, किन्तु भगवान के दर्शन-स्पर्शन की बात तो दूर, उनकी विपदा तक कम न हुई। आखिर यह विरोधाभास क्यों?”

जयदेव तनिक हँसे, कहा “प्रिये! भगवान सेवा कराने नहीं, करने आते हैं। जहाँ सेवा के हाथ और परोपकार के पैर ही उठने बन्द हो गये हों, जिनके हृदय की करुणा मरुस्थल की मृत्तिका की भाँति सूख गई हो, भला उन घरों में उनके चरण क्यों कर पड़ने लगे। वह तो सच्चे भाव के भूखे हैं, आहार-मनुहार के नहीं। जहाँ यह सब तत्व इकट्ठे होंगे, वहाँ उनका अनुग्रह कदापि असंभव हो ही नहीं सकता।” पद्मावती का समाधान हो चुका था।


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