एक विभूति, जो गंगा में समा गई

September 1991

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“ओ देखो, ओ देखो, वह अन्त्यज आ गया” पण्डित मण्डली में से किसी ने चिल्लाया- “उसे पास फटकने न देना, न ही कोई उसका स्पर्श करना, अब वह कुलीन नहीं रहा।”

तभी कोई क्षीण स्वर सुनाई पड़ा “ब्राह्मण देवता,

जिसे आप अस्पृश्य और नीच बता रहे हैं, वह तो पण्डितराज जगन्नाथ मिश्र हैं। संस्कृत के उद्भट विद्वान, पिंगल और दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित एवं व्याकरण के मर्मज्ञ। शायद पहचानने में कोई भूल हुई हो।” इसी बीच आगन्तुक कुछ और निकट आ गया। युवक पुनः चिल्लाया पुनः “हाँ-हाँ महाराज यह वही “पंडितराज” है जिन्हें सम्राट शाहजहाँ के दरबार में इसकी मानद उपाधि प्रदान की गई है, इनकी विद्वत्ता को देखते हुए।”

“चुप रह, तभी से बक-बक किये जा रहा है। तुम जानते हो इस तथाकथित ‘अभिजात’ पंडितराज का इतिहास।” ब्राह्मण मण्डली में से कई स्वर साथ-साथ उभरे, पर स्फुट एक ही आवाज जो तनिक ऊँची थी, गरजती हुई सुनाई पड़ी।

“हाँ, आचार्य! इनका इतिहास मैं भलीभाँति जानता हूँ।” समूह में सम्मिलित युवक का निर्भीक उत्तर था- “यह एक सम्पन्न घराने के कुलीन ब्राह्मण हैं। गलती इन्होंने इतनी ही की थी कि पाणिग्रहण एक यवन कन्या से परिवार वालों के विरुद्ध कर लिया था, क्योंकि उन्हें कन्या से प्रेम था और वह भी उन्हें चाहती थी। अब जबकि शाहजहाँ अपने पुत्र औरंगजेब की कालकोठरी में मृत्यु का इन्तजार कर रहे हैं और इन्होंने शेष जीवन वैराग्यपूर्ण ढंग से बिताने का निश्चय कर ही यहाँ काशी विश्वनाथ के दर्शनों के लिए पधारे हैं। इन्हें दर्शन की अनुमति दी जाय महाराज।” युवक का अनुरोध भरा आग्रह था।

“नहीं” एक साथ कई स्वर गूँज उठे। “क्या तुम्हें नहीं मालूम इन्हें इस अपराध के कारण जातिच्युत कर दिया गया है।”

“सो तो पता है आचार्य” युवक का उत्तर था- “पर आप जैसे मूर्धन्य भी इस साधारण सी बात को तूल देंगे कि जाति बन्धन ईश्वर का निर्धारण है, आश्चर्य होता है और अंतर्जातीय विवाह से ईश्वरीय-विधान में हस्तक्षेप होता एवं व्यक्ति जाति-च्युत होता है, अचम्भा होता है। मैंने तो आज तक ऐसा किसी ग्रन्थ में पढ़ा नहीं उल्टे, लोम-विलोम विवाह की मान्यता का समर्थन ही आर्ष ग्रन्थों में किया गया है। ऐसी शादियों से न तो कोई ऊँचा बनता है, न नीच, न शुद्र, न ब्राह्मण। यह तो मानव की स्वार्थपूर्ण संरचना है। क्या आपने ऐतरेय के प्रसंग को विस्मृत कर दिया? वे किस प्रकार नीच कुल में जन्म लेकर शूद्र होकर भी ब्राह्मण बन गये इसे भूल गये। यह सब तो आप्तजनों ने कर्म के आधार पर निर्धारित किया था कि जो जैसा कर्म करेगा, उसकी गणना चतुवर्णों में से किसी में की जायेगी। जगह-जगह शास्त्रों में इसी प्रसंग को उभारा भी गया है। अनेक दृष्टांतों में देखने को मिलता है कि ब्राह्मण क्षुद्र कर्म करने के कारण शुद्र बन गया और शुद्र ने अपने उच्च आचरणों और कर्मों से ब्राह्मण की उपाधि धारण कर ली।”

“यह सब कुछ जानते-समझते हुए भी आप सब इस विद्वान पण्डित की अवमानना करने पर तुले हुए हैं।

आखिर क्यों?”

“चक्रपाणि अभी तुम अपरिपक्व हो। इन गूढ़ बातों को नहीं समझोगे, अस्तु चुप रहने में ही तुम्हारी भलाई है, अन्यथा .........”

“अन्यथा क्या आचार्य?” युवक का आक्रोश भरा स्वर उभरा- “यही न कि मेरी भी वही दशा होगी जो इस ब्राह्मणराज की हो रही है? कोई बात नहीं, मैं इसे सह लूँगा पर किसी निरपराध का इस प्रकार अपमान बर्दाश्त न कर सकूँगा।”

अभी इस बूढ़े ब्राह्मण आचार्य और चक्रपाणि के बीच विवाद चल ही रहा था कि निकट ही खड़ी ब्राह्मण-मंडली मध्य से जोर-जोर के शोर की आवाजें आने लगी।

दोनों उस ओर चल पड़े। इस बीच पंडितराज जगन्नाथ उनके अत्यन्त निकट पहुँच चुके थे। वे भगवान विश्वनाथ के दर्शन की तीव्र आकाँक्षा सँजोये उन तथाकथित ‘ब्राह्मणों’ से इसकी अनुमति चाह रहे थे, पर वे थे कि रास्ता रोके खड़े थे और उन्हें आगे बढ़ने देना नहीं चाह रहें थे। उनका कहना था कि तुम यवन कन्या के संसर्ग से अपवित्र हो चुके हो, किन्तु विद्वान जगन्नाथ अपनी पवित्रता के संबंध में ढेर सारे प्रमाण प्रस्तुत करते चले जा रहे थे, परन्तु उनके तर्कों और प्रमाणों को कोई मानने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। अन्ततः एक बात पर सहमति हुई कि जगन्नाथ पण्डित को अपनी पवित्रता की साक्षी देनी पड़ेगी, उसे एक अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। यदि इसमें वह सफल हो जाते हैं, तो उन्हें भगवान के दर्शनों के लिए जाने दिया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

अनुबन्ध रखा गया कि यदि वे सचमुच शुद्ध और पवित्र हैं, तो गंगा तट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ कर गंगा की स्तुति करें। यदि भागीरथी गंगा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ते हुए अन्तिम सीढ़ी पर उनका स्पर्श कर लेती हैं, तो उन्हें शुद्ध और पवित्र मान लिया जायेगा।

पं. जगन्नाथ मिश्र ने चुनौती स्वीकार कर ली और अश्रुपूरित नेत्रों से भाव-विह्वल होकर पतित पावनी गंगा का आवाहन शुरू किया।

वे कहने लगे “हे गंगे! जिसके पावन स्पर्श से पतितों के पाप और दुष्टों के दुरित धुल जाते हैं, आज उसी के समक्ष एक पापी उपस्थित होकर कातर प्रार्थना कर रहा है। हे भगवती! मुझे इनसे मुक्त कर अपना अंकशायी बना ले। मुझ जैसे पापियों का और स्थान भी कहाँ हो सकता है। मुझ पर कृपा कर अपने में समाहित कर ले............।” इस प्रकार वे एक-एक श्लोक बोलते गये और भगवती गंगा एक-एक सीढ़ी ऊपर आती गई। कहते हैं कि अजस्र अश्रुप्रवाह युक्त बावनवें श्लोक के पूरा होते-होते तरणतारिणी कलिमलहारिणी गंगा ने अन्तिम सीढ़ी पार कर सदा-सदा के लिए पंडतधिराज को अपने में आत्मसात् कर लिया।

उनकी परीक्षा पूर्ण हुई और मूढ़ ब्राह्मण समुदाय एक विलक्षण प्रतिभा को कुप्रथाओं की बलिवेदी पर चढ़ा कर हाथ मलते और सिर धुनते रह गया।

चक्रपाणि अभी भी उन तथाकथित विद्वानों के झुण्ड में खड़ा था। उनके इस अविद्वतापूर्ण कार्य से उसे रोष तो बहुत आ रहा था, पर उसने तनिक संयम बरता और एक फीकी मुस्कान बिखेरते हुए व्यंग-बाण छोड़ा- “भव पण्डिता?”

अचानक उपस्थितजनों की विचार चेतना भंग हुई, तो निगाहें आवाज की दिशा की ओर उठ गई, देखा कि एक तेजस्वी युवक की आँखों से घृणा की बूंदें सजल होकर टपक रही हैं।

सम्बोधन जारी रहा- “अब तो आप लोगों को संतुष्टि मिली! मन शान्त हुआ? एक निरपराध विद्वान को इस प्रकार का दण्ड देते हुए लज्जा नहीं आयी?


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