चिर यौवन का रहस्य

September 1991

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मनुष्य को श्रेष्ठतम जीवों में गिना जाता है। यहाँ तक कि उसे परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट कृति कहा गया है। पंचतत्वों से विनिर्मित इसे देव मन्दिर भी माना और “शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनम्” अर्थात् धर्मादि को प्राप्त करने का सुनिश्चित साधन बताया गया है। इस संसार में जीवन का आधार यह शरीर ही है। कोई भी भौतिक या आध्यात्मिक उपलब्धि बिना स्वस्थ एवं निरोग सशक्त शरीर के संभव नहीं है। अतः इसको सुन्दर स्वस्थ और रोगमुक्त रखना तथा पवित्रता, निर्मलता और शोभा-सुषमा से भरा रखना मनुष्य का सर्वोपरि कर्तव्य है।

अब प्रश्न यह उठता है कि देव मन्दिर रूपी इस काया की जब इतनी महिमा-महत्ता शास्त्रों में प्रतिपादित की गयी है, तो इसे स्वस्थ, सशक्त एवं दीर्घायुष्य कैसे रखा जाय? इसका उत्तर देते हुए आर्षग्रन्थों, आयुर्वेद ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर दीर्घ-जीवन के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। अथर्ववेद 5/30/7 में उल्लास, स्फूर्ति निरोगता को ही यौवन बताते हुए कहा है।-

“अनुहृत पुनरेति विदवानुदयनं पथः।

आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम्॥”

अर्थात् “हे मनुष्यों! तुम मृत्यु की ओर क्यों जा रहे हो? मैं तुम्हें जीवन, उल्लास,यौवन, उत्साह की ओर बुला रहा हूँ, वापस आओ। वास्तविक आयु कुछ भी क्यों न हो, मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह अपने जीवन-पर्यन्त पूर्ण स्वस्थ, शक्तिवान एवं वीर्यवान बना रहे। वेदों में इसी तथ्य का उद्घोष किया गया है।

वस्तुतः मनुष्य अप्राकृतिक दिनचर्या एवं असंयम अपनाकर ही इस दुर्लभ, अनोखे एवं सुन्दर देह रूपी ईश्वरीय उपहार की उपेक्षा- अवहेलना करता तिरस्कार करता और उसे रोगी, शक्तिहीन एवं कुरूप बनाता है। इस संबंध में विख्यात पाश्चात्य स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ. मेलविन कीथ ने गहन अनुसंधान किया है। अपनी कृति “रायल रोड टू हेल” में उनने लिखा है कि अप्राकृतिक जीवनचर्या अपनाने के कारण मानव जाति दिन-प्रतिदिन शक्ति-सामर्थ्य की दृष्टि से क्षीण होती जा रही है। जिसका प्रतिफल है असमय बुढ़ापा एवं अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति। यदि चिन्ता रहित सरल एवं प्राकृतिक रहन-सहन अपनाया जा सके तो कोई कारण नहीं कि दीर्घ जीवन का आनन्द न उठाया जा सके। इसके लिए मनुष्य को प्रकृति के अन्य सदस्यों पशु-पक्षियों से प्रेरणा लेनी और उनका अनुकरण करना चाहिए जो आयु के अन्तिम समय में भी असीम उत्साह एवं उमंग से भरे रहते है। एक मानव ही है जो अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारता और अनेकों प्रकार के रोगों से ग्रस्त हुआ रोते-कलपते जीवन के अन्तिम दिन पूरे करता है।

वस्तुतः प्रकृति की प्रेरणा है कि अनावश्यक चिन्तायें छोड़ दी जायँ तथा ईश्वर प्रदत्त जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग किया जाय। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता का प्रत्येक कार्य में समावेश रखते हुए नैसर्गिक जीवनक्रम अपनाकर जीवन पर्यन्त यौवन का आनन्द उठाया जाय। कृत्रिमता से सदैव दूर रहा जाय। निश्चित जीवनचर्या अपनाते हुए समय पर उठना, काम निपटाना, आहार-विहार संयमित रखना एवं रात्रि को निश्चित होकर सो रहना ही सदा स्वस्थ एवं चिरयुवा रहने का रहस्य है। मानवेत्तर प्राणी इसी नियम को पालते और चिरयुवा बने रहते हैं।

“स्टेइंग यंग विर्योड योर इयर्स” नामक अपनी पुस्तक में सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञान डॉ. एच.डब्लू. हैगर्ड ने काहिली एवं कृत्रिमता को सभी रोगों एवं वार्धक्य का कारण माना है। उनका कहना है कि प्रकृति विरोधी आचरण करके ही अपनी भूल, प्रमाद या अज्ञानवश लोग रोगों को आमंत्रित करते हैं। सक्रियता, प्रसन्नता, कोई स्वस्थ एवं दीर्घजीवी हो सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। डॉ. राधाकृष्णन ने चिर यौवन का रहस्य बताते हुए कहा है कि इसके लिए मनुष्य को हँसमुख, सरल स्वभाव को वास्तविक एवं गंभीर रूप से विकसित करना तथा प्रकृति के अनुरूप आहार-विहार अपनाना चाहिए। प्रसन्नता-प्रफुल्लता युक्त संयमित प्राकृतिक जीवनक्रम अपनाने से ही मनुष्य देह-रूपी देव मन्दिर रोग रहित एवं शक्तियुक्त रह सकता है। सशक्तता- सबलता के यही आधार स्तंभ हैं।


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