स्रष्टा के अनुदानों की उपेक्षा न हो

September 1991

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प्रगतिशीलता का तकाजा यह है कि वह अपनी उपलब्धियों का श्रेष्ठतम सदुपयोग करें। अभाव का चिन्तन करने और अपने से अधिक सुविधा सम्पन्न लोगों के साथ तुलना करते हुए अपने दुर्भाग्य को कोसा ही जा सकता है। दरिद्रता के लिए भाग्य को दोष दिया जा सकता है। पर यदि यह देखा जाय कि हमारे पास जो है, जितना है उतना भी असंख्यों को उपलब्ध नहीं तो हर कोई संतोष की साँस ले सकता है और अपने को आर्थिक दृष्टि से न सही अन्य अनेक क्षेत्रों में अपनी स्थिति को सराहनीय मान सकता है।

मनुष्य जन्म अपने आप में एक विभूति है। करोड़ों की संख्या में पाई जाने वाली जीव प्रजातियों से यह धरती भरी पड़ी है, पर उनमें अकेला मनुष्य ही ऐसा है जिसे प्रकृति ने, परमात्मा ने अपनी सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में गढ़ा है। इतना सर्वांग सुन्दर, उपयोगी और बहुमुखी क्षमताओं से परिपूर्ण शरीर और किसे मिला है? चिन्तन की एक क्षमता और किस प्राणी को आती है? आन्तरिक उल्लास और उत्साह किसके भीतर से फूटता है? उचित अनुचित का विभेद करने वाली और औचित्य अपनाने की प्रेरणा किसके भीतर से उभरती है। यह अधिकार केवल मनुष्य को मिला है कि वह अपने भाग्य की संरचना मन चाहे ढंग से, मन चाही दिशा में कर सके। ऐसी दशा में बुद्धिमान वे ही हैं, जो अकारण असंतोष की आग में नहीं जलते और गर्व गौरव अनुभव करते हैं कि हमें मनुष्य जीवन मिला।

यह स्रष्टा का अनुग्रह है कि मनुष्य जन्म जैसा अनुपम उपहार मिला। अब अपनी बारी है कि उसका सदुपयोग करके दिखायें और उस प्रयास का हाथों-हाथ आनन्द उठाते हुए भविष्य को उज्ज्वल बनाये।

स्रष्टा के प्रत्यक्ष अनुदानों में ही प्रमुख है एक समय, दूसरा श्रम। समय के छोटे-छोटे घटकों को मिला कर ही जीवन बना है। उसमें से एक तो ऐसे ही सोने में, नित्य कर्म में, आलस्य प्रमाद में खप जाता है पर जितना उपयोगी कार्य कर सकने की स्थिति में हैं, हम उसका भी एक बहुत छोटा अंश काम में ला पाते हैं। यदि उस जीवन सम्पदा के एक-एक क्षण का हिसाब लगाने की आदत हो तो पता चलेगा कि हम समय देवता की कितनी अवज्ञा उपेक्षा करते हैं और उसे किस प्रकार प्रमाद में ढील पोल बरतने में नष्ट कर देते हैं। यदि इसे सँभाला सँजोया गया होता तो निश्चय ही उतने भर से अपना ज्ञान बढ़ाने और व्यक्तित्व निखारने में कितनी सहायता मिल सकती थी?


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