शरशैया पर लेटे हुए भीष्म उपस्थित समुदाय को धर्मोपदेश दे रहे थे। उन्हें उत्तरायण सूर्य आने तक प्राण छोड़ने नहीं थे।
श्रोताओं में द्रौपदी भी उपस्थित थी। धर्म चर्चा के बीच वह मुस्काई भी व्यंगपूर्वक बोली। जब दुःशासन द्वारा भरी सभा में मुझे नंगी किया जा रहा था और जब दुर्योधन अनीति युद्ध पर करने की अपेक्षा यही धर्मोपदेश क्यों नहीं दिये। जो इस समय हम सब को दे रहे हैं।
भीष्म निरुत्तर हो गये तो भी उनने कहा देवि उन दिनों मैं कौरवों का अन्न खाता था। जैसा अन्न खाया जाता है वैसी ही बुद्धि भी बनती है। तब मेरी बुद्धि कुधान्य के कारण भ्रष्ट थी। अब वह अशुद्ध रक्त बह गया और शुद्ध रक्त बना है उसी कारण यह धर्मोपदेश बन पड़ रहे हैं।
पुरुषार्थ से अधिक से अधिक आध्यात्मिक तथा भौतिक अनुदान पाने संबंधी महत्वपूर्ण विवेचन प्रस्तुत किया जाएगा। कहा गया है कि यह समय अति विशिष्ट है। आश्विन नवरात्रि पर उपलब्ध होने वाले इस अंक का महत्व इसी तथ्य से और भी बढ़ जाता है कि इन नवरात्रियों से ही बिना समय गँवाये अपने साधनाक्रम को आरंभ कर दिया जाना चाहिए। ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते। यदि इस का लाभ उठा लिया गया तो यह निश्चित मान लिया जाना चाहिए कि अत्यधिक श्रेय उठा लेने वाले दूरदर्शियों में अपनी गणना हो गयी।
*समाप्त*