एकता समता की घटोत्तरी (Kahani)

September 1991

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परिवार के सारे उत्तरदायित्व अपने अग्रज श्री महेन्द्र प्रसाद पर छोड़ कर राजेन्द्र बाबू देश सेवा में लग गये। वकालत छोड़ देने के कारण घर की आर्थिक स्थिति में तो अन्तर आया ही था कि अचानक बड़े भाई का स्वर्गवास हो गया। अब तो और भी हालत बिगड़ी। परिवार की सारी व्यवस्था बड़े भाई ही किया करते थे। राजेन्द्र बाबू को इस सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं थी। परिवार ऋण ग्रस्त हो गया था कई महाजनों का। सब लोगों ने राजेन्द्र बाबू से तकाजा किया परन्तु घर में इतना पैसा था नहीं कि सभी कर्जदारों को निपटाया जा सके।

बाबूजी ने फिर भी देश सेवा में किसी प्रकार का व्यतिक्रम न आने दिया। ऋण उतारने के लिये उन्होंने तीन चौथाई संपत्ति बेच दी और कर्ज चुकाया। इस प्रकार उन्होंने धैर्यपूर्वक सारा ऋण अदा कर दिया। कोई और व्यक्ति होता तो उन परिस्थितियों में अपना सन्तुलन खो ही बैठता।

वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में अनुपयुक्तता, अवाँछनीयता के, अराजकता स्तर के घटाटोप छाए हुए हैं। सम्पदा सुविधा का बाहुल्य होते हुए भी उसके वितरण का समुचित प्रबंध नहीं हो रहा है। फलतः अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब होते जा रहे रहे हैं, हर क्षेत्र में अपने-अपने ढंग की उद्दंडता उभर रही है। वर्जनाओं की परवाह नहीं की जा रही है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला मत्स्य न्याय व्यापक क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाता चला जा रहा है। ऐसी दशा में शान्ति की, सन्तोष की, एकता समता की घटोत्तरी होते चले जाना स्वाभाविक है।

इसे विडम्बना ही कहना चाहिए कि एक ओर जहाँ सुविधा सम्पदा की बढ़ोत्तरी होती जा रही है वहाँ दूसरी ओर उनके लिए तरसने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। जिनके पास प्रचुर साधन हैं, वे मिल−बांट कर इसे खाने की बात नहीं सोचते वरन् उपभोग में आ सकने की सीमा से बाहर जो बचता है उसे विनाशकारी, आत्मघाती दुष्प्रयोजनों में लगा रहे हैं। फलतः उन्हें भी ईर्ष्या का-अनीति का कडुआ प्रतिफल हाथों हाथ भोगना पड़ता है। चैन से वे भी नहीं बैठ पाते। जहाँ भूख से अगणित लोग त्रास पाते हैं, वहाँ अधिक खाने से उत्पन्न अपच भी सुसम्पन्नों के लिए विपत्ति का कारण बनता है। सम्पन्न और विपन्न दोनों ही वर्ग अपने-अपने ढंग से अपने-अपने कारणों से दुःख सहते और विपत्ति में फँसते देखे जाते हैं।

इन विसंगतियों का कारण एक ही है, चेतना क्षेत्र में नीति निष्ठ का अत्यधिक ह्रास। यदि मानवी गरिमा को ध्यान में रखा गया होता, आदर्शों का परिपालन बन पड़ा होता तो यह अवाँछनीयता की स्थिति न आती। इन दिनों वैयक्तिक और सामूहिक क्षेत्रों में कुप्रचलन संव्याप्त है। उनका प्रभाव सामान्य जनों पर पड़े बिना नहीं रहता। संचित कुसंस्कार भी उभरते रहते है। देखा यही जाता है कि पतन की दिशा में अनायास ही मन चलता है और ऐसा कृत्य बन पड़ता है जिसे पशु प्रवृत्तियों का पक्षधर ही कहा जा सके। इन कारणों से जन सामान्य की मनःस्थिति पतनोन्मुखी ही बनती रहती है। इसी का परिणाम है कि शालीनता को अक्षुण्ण रख सकना, कठिन हो जाता है। भ्रष्ट चिन्तन और उुष्टडडडडडड चरित्र का परिणाम वैसा ही होना चाहिए जैसा कि इन दिनों व्यापक रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है।

हाथी को अंकुश से, घोड़े को लगाम से, ऊँट को नकेल से, बैल को डंडे के सहारे वशवर्ती रखा जाता है और उपयोगी कृत्य करने के लिए बाधित किया जाता है। मनुष्य को धर्मधारणा के सहारे कुकर्मों से बचाया और सन्मार्ग पर चलाया जाता है।

उपार्जन एक बात है और उसका सदुपयोग दूसरी। शारीरिक और मानसिक क्षमता के आधार पर किसी भी प्रकार का उपार्जन किया जा सकता है किन्तु उसका सदुपयोग दूरदर्शी विवेक के बिना, नीति निष्ठ के बिना बन नहीं पड़ता। उस स्तर की क्षमता का होना भी सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

परिमार्जन परिशोधन का क्रम न चले तो गंदगी एकत्रित होती चले जाना स्वाभाविक है। शरीर में अनेकों मल निरन्तर बनते रहते हैं। उनका निष्कासन मल-मूत्र श्वास-स्वेद मार्गों द्वारा होता रहता है। घर आँगन में आए दिन जमा होने वाला कचरा झाडू से बुहारा जाता है। बालों और वस्त्रों की सफाई पानी और


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