तर्क ही नहीं, विवेक भी

September 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अक्सर लोग कहा करते हैं कि प्रस्तुत प्रसंग से मेरा तर्क सही है और सामने वाले का गलत। मैं तर्कसंगत हूँ और दूसरा तर्कविहीन, पर लोगों को यह बात भलीभाँति समझ लेनी चाहिए कि सिर्फ तर्क के सहारे न तो किसी वस्तु को सिद्ध किया जा सकता है न असिद्ध ठहराया जा सकता है, वरन् सच्चाई तो यह है कि तर्क के माध्यम से किसी एक चीज का खण्डन भी किया जा सकता है और दूसरे ही पल दूसरे प्रकार की दलीलों से उसका मंडन भी। अतः तर्कशास्त्र को ही किसी वस्तु को प्रमाणित करने का सबसे बड़ा सर्वोपरि और प्रामाणिक आधार नहीं मान लेना चाहिए, अपितु साथ-साथ विवेक का भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

संस्कृत साहित्य में एक पुस्तक है “न्याय कुसुमाँजलि”। इस पुस्तक में लेखक ने वादी और प्रतिवादी के दो दल प्रस्तुत किये हैं। एक ईश्वर के समर्थन में अनेकानेक ऐसे अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करता है, जिसे किसी भी बुद्धिजीवी के लिए अस्वीकारना असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। दूसरा दल उससे भी सटीक और तर्कसंगत दलील देते हुए यह सिद्ध करता है कि संसार में ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, संसार स्वतः उत्पन्न है। उसका कोई नियन्ता अथवा व्यवस्थापक नहीं है। अन्त में पुस्तक के रचनाकार लिखते हैं कि यहाँ न तो मेरा उद्देश्य ईश्वर को नकारना है और न स्वीकारना। इसके द्वारा मेरे आस्तिक अथवा नास्तिक होने का अनुमान भी नहीं लगाया जाना चाहिए, वरन् मैं तो सिर्फ यह बताना चाहता था कि तर्क कैसे किया जाता है और दलील के माध्यम से किसी तत्व को सिद्ध व असिद्ध साबित कैसे किया जा सकता है?

कपिल मुनि ने अपने दर्शन में एक सूत्र दिया है- “ईश्वरासिद्धे”। इसकी व्याख्या करते हुए कई व्याख्याकार कहते हैं कि यहाँ कपिल मुनि का तात्पर्य यह है कि ईश्वर स्वतः सिद्ध है, उसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि कई भाष्यकार इसका अर्थ यह कह कर लगाते हैं कि भगवान असिद्ध है, उसे तर्कों द्वारा साबित नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत सूत्र में कपिल मुनि का अभिप्राय चाहे जो रहा हो, पर एक बात स्पष्ट है कि किसी भी बात को तोड़ मरोड़ कर किसी भी पक्ष में किया जा सकता है। तर्कवादी चाहे तो अपने तर्कों द्वारा उसके अस्तित्व को अस्वीकार कर दें और चाहे, तो दूसरों को स्वीकारने पर मजबूर कर दें। वकील लोग प्रायः यही किया करते हैं। उनका पेशा ही होता है झूठ को सच बनाना और सच को मिथ्या साबित कर देना। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि दलील में कितना सामर्थ्य है कि न्याय को अन्यायपूर्ण ठहरा दे और अन्याय को न्यायपूर्ण। इसमें वाक्पटुता एवं तर्क क्षमता की ही प्रमुख भूमिका होती है।

एक कथा है कि एक बार एक तर्कशास्त्री अपने कमरे में चिन्तनमग्न था, तभी उसकी पत्नी आयी। पूछा कि बात क्या है, जो आप इतने खोये-खोये लग रहे हैं। उसने जवाब दिया कि यही सोच रहा हूँ कि यह दुनिया कितनी मूर्ख है कि जो कुछ मैं कहता हूँ उसे स्वीकार लेती है। इस पर पत्नी ने प्रतिवाद किया, पर पति महोदय अड़ गये वह तर्कशास्त्री जो थे। जब वाद-विवाद चल रहा था, तो तर्कवादी नाश्ता करने जा रहे थे। सामने टेबल पर मक्खन लगी ब्रेड रखी थी। समाधान न पाकर पत्नी ने


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles