धर्म के शाश्वत स्वरूप को समझे बिना गति नहीं

September 1991

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विघटन एवं विनाश के कगार पर खड़ी मानव जाति को आज धर्म की, धर्माचरण की अत्यधिक आवश्यकता है। एक मात्र यही वह शाश्वत सत्ता है जो संसार का कल्याण करने में सक्षम है। पर यह धर्म इस महान लक्ष्य की आपूर्ति तभी कर सकता है जब वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण परिधि से बाहर निकले और स्वस्थ तथा समग्र रूप से प्रस्तुत हो। इसके लिए धर्म के सही स्वरूप को समझना आवश्यक है।

महाभारत में धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बतायी गयी है। ‘धृ’ का अर्थ होता है धारण करना। ‘धर्म’ शब्द अपने स्वरूप और लक्ष्य को स्वयं स्पष्ट करता है। धर्म से तात्पर्य है, वह वस्तु जो समस्त विश्व को धारण कर रही है अर्थात् धर्म समस्त संसार का मूल आधार और समाज की एकता को मूर्तिमान करने वाला एक सशक्त माध्यम है। इसके सही स्वरूप को जन सामान्य की दृष्टि में और भी बोधगम्य बनाने के लिए महाभारत तथा श्रीमद्भागवत पुराण में धर्म की पत्नियों की संख्या बतायी गयी है। यह अलंकारिक वर्णन है जो धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करता है। महाभारत के अनुसार कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा तथा मति धर्म की पत्नियों के नाम हैं। इस अलंकारिक वर्णन के पीछे शास्त्रकार का भाव यह है कि इनके बिना धर्म अपूर्ण है। इन्हें इसकी वे शाश्वत विशेषताएँ कहा जा सकता है जो प्राण के रूप में सभी धर्मों में शब्दान्तर से किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। ये धर्म की अपरिवर्तनीय विशेषतायें हैं। इनके अभाव में धर्म को मात्र कर्मकाण्डों का, कलेवर का समुच्चय समझ लिया जाता है।

बौद्ध भिक्षु यू. थित्तिल ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह एक शाश्वत सत्ता तथा विश्व का प्राण है। इसे समस्त संसार को परिचालित करने वाला सिद्धाँतों का ऐसा समुच्चय समझा जा सकता है जिससे प्राणि मात्र का कल्याण सन्निहित है। वे अपनी पुस्तक “दी पाथ ऑफ बुद्धा” में लिखते हैं कि सूर्य, चन्द्र, पुष्प, पवन, पर्वत, सरिता, पावक, अन्न आदि सभी अपना-अपना धर्म निभा रहे हैं। इसीलिए जीवन चल रहा है तथा जगत स्थित है। जिस दिन सूर्य अपना कार्य न करेगा, अग्नि अपना दाहक धर्म खो देगी, उस दिन विश्व का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। मनुष्य जीवन में धर्म का आवरण भी इसी प्रकार होना चाहिए जो समस्त विश्व को अपने भीतर समाहित कर ले।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार धर्म का अर्थ है आत्मा को आत्मा के रूप में उपलब्ध करना, हृदय के अंतर्तम प्रदेश में प्रविष्ट कर ईश्वर का, सत्य-का संस्पर्श प्राप्त करना, तत्व की प्रतीति करना-उपलब्धि करना, कि मैं आत्मा स्वरूप हूँ और अनन्त परमात्मा एवं उसके अनेक अच्छे अवतारों से मेरा युग-युग का अविच्छिन्न संबंध है। गिरजा, मन्दिर, मस्जिद, मत-मतान्तर विविध अनुष्ठान आदि पौधे की रक्षा के लिए लगाये गये घेरे के समान हैं। यदि आगे बढ़ना है, आत्मिक गति करनी है तो अन्त में इस घेरे को हटाना ही पड़ेगा। धर्म न तो सिद्धाँतों की थोथी बकवास है, न मतमतान्तरों का प्रतिपादन और खण्डन है और न ही बौद्धिक सहमति है। इसी प्रकार धर्म न तो शब्द होता है, न नाम और सम्प्रदाय, वरन् इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति। जिन्हें अनुभव हुआ वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्म लाभ कर लिया है वे ही मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं वे ही ज्योति की शक्ति हैं। धर्म के नाम पर होने वाले सभी प्रकार के झगड़े-झंझटों से केवल यही प्रकट होता है कि आध्यात्मिकता का मर्म समझ में आया नहीं है।

मनीषियों ने धर्म के दो भाग बताये हैं पहला कलेवर, दूसरा प्राण। कलेवर समय-समय पर आवश्यकता के अनुरूप बदलता रहता है, पर प्राण की सत्ता सदा एक जैसी रहती है। प्राण धर्म के वे शाश्वत सिद्धाँत हैं जिन पर देश, काल की परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे सदा एक जैसे बने रहते हैं। धर्म का अस्तित्व इस प्राण सत्ता पर ही टिका हुआ है, जब कि कलेवर परिवर्तनशील है और समय-समय पर उनमें सुधार एवं परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है। कहना न होगा कि प्रत्येक धर्म का साम्प्रदायिक कलेवर उनके विकास के अनुसार विविध रूपों में दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, बौद्ध, सिक्ख, ताओ, शिन्तो आदि विभिन्न परिस्थितियों में जन्में और विकसित हुए हैं। प्रत्येक की अपनी महत्ता और उपयोगिता है। पर कब? जब कि वे धर्म के शाश्वत सिद्धाँतों का प्रतिपादन करें तथा मनुष्य जीवन के प्रमुख लक्ष्य की ओर उन्मुख रहें। लक्ष्य और सिद्धाँतों को भुला देने से तो वे परस्पर मतभेदों को ही जन्म देते हैं। अतः किसी भी धर्म की महत्ता एवं सार्थकता इसी बात में सन्निहित है कि वह मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना में कितना अधिक सहयोग देता है। वह मनुष्य जाति को कितना अधिक एक दूसरे के नजदीक लाता तथा आपसी स्नेह सौहार्द विकसित करता है।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि आज समाज में बहुतायत उन व्यक्तियों की है जो धर्म के वास्तविक स्वरूप और लक्ष्य से अपरिचित हैं। वे प्रायः सम्प्रदाय रूपी कलेवरों को ही धर्म का यथार्थ स्वरूप समझते हैं। फलतः वे जिन क्रियाकृत्यों को ग्रहण करते हैं उन्हीं तक सीमित रह जाते हैं और रूढ़िग्रस्त होकर धर्म के लक्ष्य से भटक जाते हैं। कभी-कभी धर्म-सम्प्रदायों को लेकर जो मतभेद होते हैं अर्थात् संघर्ष उठते हैं यदि उनकी मीमाँसा विवेकपूर्ण ढंग से की जाये तो स्पष्ट होगा कि वे झगड़े रूढ़िग्रस्तता एवं अदूरदर्शिता के कारण ही होते हैं। धर्म का प्राण विवेक है जो मनुष्य की अदूरदर्शिता को दूर करना और उसे गगन की तरह अनन्त तथा उदार बनाना चाहता है। पर यह तभी संभव है जब धर्म के प्राणतत्व का अवलम्बन लिया जाय तथा साम्प्रदायिकता की संकीर्णता से निकला जाय।

सभी मत और सम्प्रदाय मनुष्य के अपने हैं और सभी भव्य हैं। वे सभी मनुष्यों को धर्मोन्मुख करने में जब तक सहायक हैं, तभी तक उनकी सार्थकता है। इनकी उपयोगिता को कुछ सीमा तक स्वीकार करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि किसी सम्प्रदाय की छाया में पैदा होना अच्छा तो है, पर उसकी सीमाओं में ही आबद्ध रह जाना, मर जाना बहुत बुरा है। हमें या तो संप्रदाय को इतना विस्तृत बनाना होगा कि उसकी परिधि में समस्त संसार आ जाय। यदि ऐसा संभव नहीं होता तो स्वयं को साम्प्रदायिक संकीर्ण सीमा से बाहर निकालना होगा। मानव जाति का कल्याण धर्म के प्राणतत्व के अवलम्बन से ही संभव है।

महात्मा गाँधी का कहना है कि धर्म कुछ संकुचित संप्रदाय का पर्याय भर नहीं है। विशाल, व्यापक धर्म है। ईश्वरत्व के विषय में हमारी अचल श्रद्धा, पुनर्जीवन में आस्था, सत्य और अहिंसा में सम्पूर्ण निष्ठ। इसमें असहिष्णुता को अवकाश नहीं है। मूल धर्म वह उच्च स्तरीय सत्ता है, जो मनुष्य के स्वभाव तक में परिवर्तन कर देता है। जो हमें अन्तर के सत्य से अटूट रूप में बाँध देता है और जो निरन्तर अधिक शुद्ध और पवित्र बनाता रहता है। वह मनुष्य की प्रकृति का स्थायी तत्व है जो अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहता है और उसे तब तक बेचैन बनाये रखता है जब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता। अपने स्रष्टा का ज्ञान नहीं हो जाता तथा रचयिता के और अपने बीच का सच्चा संबंध समझ में नहीं आ जाता। जो व्यवहार में काम आये हैं अहिंसा की कसौटी पर खरा उतरे, वही धर्म है।

पाश्चात्य मनीषी बाल्टेयर ने “थीस्ट” नामक अपने एक निबन्ध में धर्म के स्वरूप पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। वे लिखते है कि “धर्मपरायणता” का अर्थ है एक ईश्वरीय सत्ता में विश्वास। ऐसा विश्वास जो मनुष्य ही नहीं, हर प्राणी के प्रति प्रेम और आत्मीयता की भावना उभारता हो-संसार को एकता के सूत्र में आबद्ध करता हो। सच्चा धार्मिक रूढ़िगत धार्मिक व्यापारों से अपने को मुक्त रखता है। वह एक ऐसी अव्यक्त भाषा बोलता है जिसे संसार का हर व्यक्ति समझ सकता है। यह वाणी उसके अंतःकरण से भाव संवेदनाओं के रूप में प्रस्फुटित होती है। विश्व उसका परिवार और प्रत्येक मनुष्य उसका अपना बन्धु होता है। सबका कल्याण करना ही उसकी पूजा बन जाती है। धर्म का जीवन में सही अर्थों में अवतरण ऐसी ही अनुभूति कराता है।

प्रकृति के सिद्धाँतों की एकरूपता का प्रतिपादन सभी वैज्ञानिक करते हैं, चाहे वे पूरब के हों अथवा पश्चिम के। सिद्धाँतों में मतभेद होने से तो विज्ञान की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जायेगी। एकता, समता, शुचिता, सहकारिता, सहिष्णुता धर्म का लक्ष्य है। इस एकत्व का प्रतिपादन एवं परिपालन प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय को न केवल सैद्धान्तिक रूप से वरन् व्यवहार द्वारा भी प्रस्तुत करना होगा। धर्म की महान गरिमा इसी तथ्य पर अवलम्बित है। धर्म का सही स्वरूप समझने और शाश्वत सिद्धाँतों को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर ही मनुष्य जाति का भविष्य सुरक्षित रह सकेगा। उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला इन्हीं तथ्यों पर अवलम्बित है।


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