दिव्य-शक्तियों के हस्तान्तरण की प्रक्रिया

September 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री को गुरुमंत्र कहा गया है। उसकी सफलता के लिए शास्त्रों ने समर्थ गुरु से दीक्षा लेने की आवश्यकता पर जोर दिया है और कहा है कि इसका प्रावधान न हो सकने पर सफलता संदिग्ध बनी रहेंगी। इस उत्तरदायित्व को हर कोई नहीं उठा सकता। समर्थ गुरु में ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र के तीनों गुण होने चाहिए। ब्रह्मा का अर्थ है-वेद ज्ञान में पारंगत, नूतन संरचना में समर्थ। वशिष्ठ का अर्थ है-ब्रह्मपरायण, सदाचार सम्पन्न, विशिष्ट आत्मबल का धनी। विश्वामित्र का अर्थ है-परम तपस्वी विश्वकल्याण के क्रिया-कलापों में निरन्तर संलग्न रहने वाला। इन तीनों गुणों से सम्पन्न गुरु को ही गायत्री मंत्र की गुरुदीक्षा देने और अनुष्ठानकर्ताओं का मार्गदर्शन, संरक्षण परिमार्जन कर सकने के लिए समर्थ अधिकारी माना गया है। ऐसे सद्गुरु का सहयोग सान्निध्य जिसे मिल सके, समझना चाहिए उसकी साधना का समुचित सत्परिणाम उत्पन्न होकर रहेगा।

गायत्री की उच्चस्तरीय या अन्यान्य अध्यात्म साधनाओं में भी साधना मार्ग के अवरोधों, विक्षोभों एवं कुसंस्कारों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान होता है। वह शिष्य को अन्तः शक्तियों से परिचित ही नहीं कराते, वरन् उसे जाग्रत एवं विकसित करने, व्यक्तित्ववान बनाने के हर संभव उपाय भी करते हैं। वह अपनी प्रचण्ड प्राण ऊर्जा तपश्चर्या एवं पुण्य सम्पदा का एक अंश देकर शिष्य की पात्रता एवं क्षमता बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। गुरु द्वारा अपनी शक्ति को हस्ताँतरित करने की यह प्रक्रिया ‘शक्तिपात’ कहलाती है। शास्त्रों में उल्लेख है- ”तत्पातः शिष्येषु” अर्थात् उस शक्ति का पात शिष्यों में होता है। यह एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सद्गुरु अपनी दिव्य शक्ति को शिष्य में संचारित करते है ताकि उसकी प्रसुप्त पड़ी अन्तः शक्तियों का जागरण हो सके और बुद्धि निर्मल बन सके। गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में पवित्रता-प्रखरता का समावेश हो सके और वह अतीन्द्रिय विषयों की सूक्ष्मता को जान सके। तंत्रशास्त्रों में इसे ही परम शिव का अनुग्रह कहा है। सद्गुरु उन्हीं के प्रतीक हैं जो अपनी शक्ति का हस्तान्तरण शिष्य के, साधन के कल्याण हेतु करते हैं।

अध्यात्मशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि साधना पथ में गुरुवरण अनिवार्य है। गुरु-कृपा के बिना इस दिशा में प्रगति संभव नहीं। शिवपुराण वायवीय संहिता में कहा गया है।

शक्तिपात समायोगादृते तत्वानितत्वतः।

तद्व्याप्तिद्विशुद्धिश्च ज्ञातुमेव न शक्यते॥

अर्थात् शक्तिपात के गुरु-अनुग्रह के समायोग के बिना तत्वतः तत्वों का ज्ञान, आत्मा की व्यापकता और शुद्ध-बुद्ध स्वरूप का ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। समर्थ गुरु ही इस धरती पर आद्यशक्ति के प्रतीक प्रतिनिधि हैं, जो अपने आत्मबल से शक्ति संचरण करते, प्रेरणा उभारते और शिष्य की प्रसुप्त क्षमताओं-प्रतिभाओं को, आध्यात्मिक शक्तियों को जो ज्ञानमयी हैं, जगाकर समस्त विघ्नों से बचाते हुए पार ले जाते है। उनकी समर्थता का लाभ साधक को आत्मबल एवं मनोबल के रूप में मिलता है, जो उसे अवांछनीयताओं से लड़ने और अन्तः विकारों को उखाड़ने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं।

अन्यत्र भी कहा है- ‘शक्तिपाताद्विशेषेण” अर्थात् शक्तिपात के द्वारा विशेषता से शक्ति का जागरण होता है। इससे साधक के आत्मिक क्षेत्र में क्राँतिकारी परिवर्तन आ जाता है। उसमें परमार्थ परायणता का, भगवद् भक्ति का, आत्मबल का विकास होता है। गुरु का यह अनुदान साधक अपनी आन्तरिक श्रद्धा के रूप में उठाता है। जिस शिष्य में श्रद्धा समर्पण की जितनी अधिक गहनता तथा आदर्शों एवं सिद्धाँतों के प्रति निष्ठ होगी, वह गुरु के अनुदानों से उतना ही अधिक लाभान्वित होता है। प्रत्येक साधक अपनी श्रद्धापूँजी के अनुरूप ही उसे प्राप्त करता और अन्तःशक्तियों का यही दर्शन है। यह एक समय साध्य प्रक्रिया है जो अपनी श्रद्धा अभिपूरित साधना द्वारा साधक गुरु से प्राप्त करता है। यह कोई आकस्मिक क्रिया नहीं है जिसके द्वारा तत्काल चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त की जाती हैं, वरन् एक लम्बे समय तक चलने वाली साधना पद्धति है जिसके अवलम्बन से शिष्य अपनी दुष्प्रवृत्तियों, कषाय-कल्मषों एवं कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाता तथा आत्मिक प्रगति करता है।

सूत संहिता में कहा गया है कि गुरु शिष्य के माया, मोह का निराकरण करते और अज्ञानाँधकार से छुड़ाकर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर करते हैं। सद्गुरु का शक्तिपात इसी रूप में होता है। शिष्य को व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने-आत्मबल बढ़ाने के रूप में इसका असामान्य पक्ष है। यह सुयोग किन्हीं विरलों को ही प्राप्त होता है। जिन्होंने अपनी क्षमता इस स्तर तक विकसित कर ली है कि शक्ति के अवतरण को धारण कर सके, ऐसे व्यक्तियों को दिव्य अनुदान भी मिलते है, पर यह प्रक्रिया उच्चस्तरीय है, सर्वजनीन नहीं, इसके लिए साधक को अपने जीवन में उत्कृष्टता का समावेश करते हुए पात्रत्व का विकास करना होता है। गुरु ऐसे व्यक्तित्वों को ही शक्ति संचरण द्वारा परमतत्व में नियोजित करते हैं।

मुण्डकोपनिषद् 1/2/13 में उल्लेख है कि इस प्रकार की दीक्षा उसी शिष्य को दी जाती है और प्रतिफल होती है जो श्रद्धासिक्त शांतचित्त, तप-तितिक्षा एवं साधना निष्ठ हो, कर्तव्यपरायण हो। ऐसा शिष्य ही अविनाशी सत्स्वरूपा आत्मा को जान और गुरुकृपा का लाभ उठा सकता है। जिसमें यह गुण नहीं, उस ऊसर भूमि में किसी भी गुरु के एक पक्षीय प्रयत्न से भी काम नहीं चल सकता। दोनों ही पक्षों की श्रेष्ठता से गुरु शिष्य संयोग का सच्चा लाभ मिलता है।

यह एकाँगी चलने वाली प्रक्रिया नहीं, वरन् दोहरी पद्धति है। गुरु के अनुदान बरसते और शिष्य को अपनी सघन श्रद्धा का आरोपण करना पड़ता है। समर्पण जितना सघन होगा, दिव्य अनुग्रह से लाभान्वित होने का उतना ही अवसर मिलेगा। श्रद्धा की परिणति चरित्र निष्ठ एवं कर्तव्य परायणता के रूप में होती है। पात्रता के विकास द्वारा ही साधक अनुदानों का लाभ उठा पाते हैं। अनेकों क्रियाएँ भी है जिनके द्वारा समर्थ गुरु से शक्ति ग्रहण की जाती है, पर उनमें क्रिया का कम अन्तः श्रद्धा का, समर्पण का ही अधिक महत्व होता है। गुरु दर्शन, नमन् चरण वंदन, वाक्यों के श्रवण द्वारा भी शक्ति अर्जित की जा सकती है।

गुरुकृपा से ही इस संसार सागर को पार किया जा सकता है। सन्त तुकाराम ने अपने एक अभंग में कहा है कि- ‘गुरु के बिना मार्ग प्राप्त नहीं होता, अतः सर्वप्रथम उनके चरणार्विंदों को स्पर्श करो। वह शरणागत वत्सल शिष्य को अपनी तरह ही बना लेते हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए संत ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी गीता में बताया है कि कृष्ण के शक्तिपात से किस तरह अर्जुन को आत्मानुभूति हुई। इसका वर्णन करते हुए वे कहते हैं “तब भगवान ने अर्जुन को दाँया हाथ फैलाकर अपने हृदय से लगा लिया। दोनों हृदय एक हो गये। जो कुछ एक में था वह दूसरे में डाल दिया। द्वैत भी बना रहा, परन्तु अर्जुन को भगवान ने अपने जैसा बना लिया। सच्चे समर्पण में गुरुकृपा का यही विशेष लाभ है। राम को गुरु वशिष्ठ से जब यह प्रसाद प्राप्त हुआ था तो उन्हें भौतिक जगत से वैराग्य हो गया था। राज वैभव को उनने त्याग दिया और युगधर्म का निर्वाह करने, अधर्म का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए चल पड़े।

गुरुदीक्षा के पश्चात् शिष्य अनेकों कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों से लद जाता है। उन सब में आवश्यक कर्तव्य है- गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा एवं भक्ति भावना का, समर्पण का होना तथा उनके कार्यों को आगे बढ़ाना यही वह आकर्षक है। जिसके बल पर शिष्य गुरु के हृदय में से आवश्यक अनुदान सहायता और कृपा प्राप्त कर सकता है। नाला गंगा में मिलकर तद्रूप हो जाता, पवित्र बन जाता है। पारस का स्पर्श पाकर लोहा सोना बन जाता है। महत्व इसी का है। गुरु की कृपा किस रूप में बरसी? शक्तिपात किस रूप में हुआ? अनुग्रह की परिणति क्या हुई? अनुभूतियाँ क्या हुई? महत्ता इसकी नहीं, वरन् फलश्रुतियों की है


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118