प्रतीकोपासना का मनोविज्ञान

September 1991

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प्रतीकोपासना को भारतीय चिन्तकों ने अपनी साधना पद्धति में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। विभिन्न प्रतीकों के अपनाए जाने के पीछे कुछ मनोविज्ञान के सूत्र सिद्धाँत सन्निहित रहे हैं। शिक्षण की व्यवहारिक विधियाँ रही हैं। इस तत्व को भली-भाँति न समझ पाने के कारण ही तथाकथित उपासक खाली रहते देखे जाते हैं। चिन्तन, चरित्र, व्यवहार एवं गुण, कर्म, स्वभाव में कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता।

वर्तमान में मनोविज्ञान के बढ़ते कदमों ने इसको बहुत कुछ समझने का प्रयास किया है। विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान के प्रवर्तक कार्लयुँग के अनुसार इन प्रतीकों के द्वारा उस सत्य को प्राप्त करना होता है, जिसकी ओर ये संकेत करते हैं। मनोवैज्ञानिक अर्बन के अनुसार धार्मिक प्रतीकवाद सदैव सार्वभौम सत्य, आस्था और सार्वभौम सौंदर्य के प्रसंग में प्रयोग किया गया है। उनके अनुसार प्रतीकों की वास्तविक और महत्वपूर्ण उपयोगिता सत्य के शिक्षण के लिए है। अध्यात्म शिक्षण की यह एक सर्वसुलभ प्रक्रिया है। इसी कारण उपनिषदों ने इसे ‘पराविद्या’ कहा है। जहाँ सामान्य शिक्षण अर्थात् “अपरविद्या” से मनुष्य का बौद्धिक एवं मानसिक विकास होता है। वहीं आध्यात्मिक शिक्षण की जरूरत आत्मिक विकास हेतु है। उपासना इसी की व्यावहारिक प्रणाली है।

सामान्य शिक्षण पद्धति में बालकों को सिखाने के लिए विभिन्न प्रतीकों की आवश्यकता को शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकारा है। विभिन्न खिलौनों, गोलियों चित्रों के द्वारा इसी जरूरत की पूर्ति की जाती है। उद्देश्य खिलौने अथवा चित्र नहीं हैं। लेकिन इनके द्वारा दो काम होते हैं। पहला बालक की समूची मानसिक वृत्तियाँ उस पर एकाग्र हो जाती हैं। इस एकाग्रता के बाद उसे उस चित्र अथवा खिलौने के द्वारा गिनती अथवा वर्णमाला के किसी अंश का बोध कराया जाता है। इस विधि से वह अंश सहज ही हृदयंगम हो जाता है।

ठीक यही बात आध्यात्मिक शिक्षण में है। विभिन्न खिलौनों, चित्रों की तरह इसमें भी अनेक तरह के प्रतीकों को व्यवहार में लाया जाता है, इनकी भिन्नता रुचि अथवा मनोभूमि की भिन्नता के आधार पर है। जिस प्रकार कोई बालक कबूतर वाली ‘क’ को जानता है, तो कोई कलम वाली ‘क’ को। बात कबूतर और कलम की नहीं है। ये तो सिर्फ माध्यम है। इनके स्थान पर ककड़ी करेला को भी चुना जा सकता है। उद्देश्य ‘क’ शब्द का बोध कराना है। प्रत्येक की रुचि, मनोभूमि को ध्यान में रखकर उसे सत्य का बोध करा दिया जाय, यही प्रतीक की उपयोगिता है।

मन का एक स्वभाव है। जिससे वह अनुराग करता है, उसे साक्षात् देखना चाहता है। मानव की सबसे प्रबल वृत्ति रागात्मक वृत्ति है। इसकी विशेषता यही है कि यह व्यक्त आधार चाहती है। यही कारण है कि विश्व के जो धर्म, सम्प्रदाय, प्रतीक, पूजा का निषेध करते हैं, उनमें भी किसी न किसी तरह प्रतीकोपासना आ गई है।

ईसाई जानते हैं कि क्रास का चिह्न सिर्फ लोहे का प्रतीक भर है। ठीक इसी तरह ईसा का चित्र भी। पर इसके प्रति आदर ईसा मसीह के प्रति आदर माना गया है। जीव की अपनी कोई आकृति नहीं पर सारे शरीरों में वही है, अतएव उसी की ये सब आकृतियाँ हैं। उसके न रहने पर इनका रहना भी मुश्किल है। जब ईश्वर के अंश जीव के ये सब रूप हैं तो उसके अंशी की ये सब आकृतियाँ क्यों नहीं हो सकती है? आखिर ये सभी आकृतियाँ प्रतीक ही तो है। ये सब किसी न किसी तरह उस सत्य की ओर इंगित करती हैं। जिस तरह अग्नि की तमाम चिनगारियों के आकार प्रकार भिन्न होते हैं। हो सकता है इनकी बाहरी रचनाओं में कोई ताल मेल न हो। व्यापक अग्नि की कोई आकृति नहीं। पर किसी भी चिंगारी को पा लेने से व्यापक अग्नि के सभी गुण -प्रभाव आदि की जानकारी होना स्वाभाविक है।

मानव स्वयं साकार है। वह अपने आप में विभिन्न गुणों, वृत्तियों के समुच्चय तथा एक विशिष्ट अवस्था का प्रतीक है। साकार वृत्तियों को ग्रहण करना मानवीय हृदय की विशेषता है। ज्योति का ध्यान, शब्द का ध्यान भी एक प्रकार के प्रतीक का ही ध्यान है। जब एक प्रकार के खुद के मनोनुकूल प्रतीक को सहज मान लिया जाता है, तो दूसरे प्रकार जो किसी दूसरे के मनोनुकूल है, मान लेने में आपत्ति क्यों?

सभी जगह व्याप्त तत्व तो प्रत्येक आकार में है। यदि किसी आकार में सुविधाजनक रीति से मन को तल्लीन किया जा सके तो हृदय की एकाग्रता में उसकी प्राप्ति हो जाएगी। किसी को अग्नि के बारे में बताने के लिए पंच महाभूतों में से एक सर्वत्र व्याप्त निराकार का उपदेश झाड़ने की जगह उसके सामने एक दहकता अंगारा रख देना ज्यादा उत्तम है। इस तरह अग्नि के प्रकाश, ताप आदि का भाव समझ लेने पर उसके निराकार रूप की भी धारणा हो जाएगी। इसी तरह जो ईश्वर को मन की एकाग्रता में, किसी भी आकार में साक्षात कर लेगा, उसे उसके निराकार रूप को समझने में कोई बाधा न होगी।

इस बात को साधना की वैज्ञानिक प्रणाली बताने वाले महर्षि पातंजलि ने भी स्वीकारा है। उनके सूत्र “यथामिमत्ध्यानाद्धा” अर्थात्- अभीष्ट ध्यान चित्त की एकाग्रता को पूर्ण कर देता है। इससे स्पष्ट है कि उपासना की साकार विधि बाहर मूर्ति के रूप में होती है। कारण कि अनुराग के लिए बाहरी प्रतीक की जरूरत है। विभिन्न देशों के झण्डे महापुरुषों के चित्र इसी मानवीय स्वभाव के द्योतक हैं। बिना प्रतीक के भावाभिव्यक्ति किस आधार पर हो।

संसार में हम पाते हैं कि व्यक्त आधार के बगैर न तो अव्यक्त की प्राप्ति होती और न ही उसके प्रति भाव व्यक्त किया जा सकता है। अव्यक्त अग्नि की प्राप्ति लकड़ी आदि व्यक्त माध्यमों से होती है। ध्वनि तरंगें भी पशु-मनुष्य, वाद्य रेडियो आदि व्यक्त आधारों से ही मिलती है। हम अपने माता-पिता गुरुजनों की सेवा करते हैं। सभी को मालूम है कि शरीर जड़तत्त्वों का बना है। इन जड़ तत्वों की सेवा हम करना नहीं चाहते। उसमें जो चेतन हैं उसके प्रति भावों को व्यक्त करने, उसकी सेवा करने का आधार इस शरीर के अलावा और क्या है? सभी स्वीकारते हैं कि माँ-बाप एवं गुरुजनों की सेवा करनी चाहिए। उनसे यदि सवाल किया जाए कि सेवा किसकी शरीर की या जीव की? इसका एक ही जवाब होगा शरीर में निहित चेतन तत्व की। शरीर की भक्ति करनी हो तो मरने के बाद जलाने दफनाने की क्या जरूरत? इस सवाल का जवाब कोई आलोचक नहीं दे सकता है कि शरीर और उसकी आकृति को छोड़कर किसी पितृ भक्त के मन में किसी और चीज का उदय हुआ या हो सकता है फिर पिता की सेवा के लिए शरीर सेवा के अलावा और क्या है?

उपासना मार्ग में इसी कारण प्रतीकों को स्वीकारा गया है। इन्हें मुख्यतः तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रथम शब्द प्रतीक जैसे ओम् आदि, द्वितीय विभिन्न आकृतियाँ जैसे स्वास्तिक, क्रॉस, तालाब में स्थिर कमल तीसरे प्रकार के प्रतीक विभिन्न मानवीय मूर्तियों के रूप में होते हैं।

पहले प्रकार के शब्द प्रतीक समूचे ध्वनि समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इतना ही नहीं शब्द को आकाश का गुण माना गया है। अतएव इन सभी का संकेत विशालता-व्यापकता की ओर है। विभिन्न आकृतियों जैसे स्वास्तिक के चारों कोने जीवन विकास की चार अवस्थाओं जन्म, जीवन, मृत्यु और अमरत्व को प्रदर्शित करते है। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने इसे चार आधारभूत मानसिक प्रक्रियाओं संवेदना, भाव, विचार और अंतःदृष्टि का भी प्रतीक माना है। इसी तरह क्रास की चार नोकों में तीन पिता, पुत्र, पवित्रात्मा की प्रतीक और चौथा व्यक्तित्व का छाया भाव है। बौद्ध


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