मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब व्यक्ति नहीं सोच रहा होता है, तब भी वह सोच रहा होता है। प्रथम दृष्टि में कथन कुछ पहेली सा प्रतीत होता है कि जब हम स्वयं सोच ही नहीं रहे हैं, तो फिर मस्तिष्क कैसे सोचेगा? बात कुछ हद तक सही मानी जा सकती है, किन्तु मस्तिष्क क्रिया का भी अपन महत्व और स्थान है। यह सत्य है कि मनुष्य जब चिन्तन करता है, तो साथ-साथ मस्तिष्क भी सोचता है या दूसरे शब्दों में कहें, तो यह कहना पड़ेगा कि वह मस्तिष्क के माध्यम से ही मनन करता है, किन्तु असत्य यह भी नहीं है कि जब मनुष्य नहीं सोचता है तब मस्तिष्क शाँत नहीं बैठा रहता कुछ न कुछ ताने-बाने बुनता रहता है।
अब यह कोई छुपी बात नहीं रही कि स्थूल मस्तिष्क अथवा चेतन मस्तिष्क के अतिरिक्त उसकी अन्य कई परतें भी हैं, जिन्हें मनोविज्ञान की भाषा में अचेतन, अवचेतन और सुपरचेतन के नाम से जाना माना जाता है। मनोविज्ञानवेत्ता जब यह कहते हैं कि मनुष्य जब शाँत एकाँत में पड़ा रहता है तब भी उसका मस्तिष्क सक्रिय रहता है, तो इससे उनका इशारा चेतन मस्तिष्क से नहीं, वरन् उसकी अन्य परतों की ओर होता हैं।
प्रयोगों के दौरान देखा गया है कि कई बार जो संदेश चेतन मस्तिष्क को दिये जाते हैं, उन्हें वह अनावश्यक और अनुपयोगी समझ कर छोड़ देता है, पर उन्हीं निस्सार लगने वाले संकेतों से मस्तिष्क की सूक्ष्म परतों में हलचल मच जाती है और उसके अनुरूप वह कार्य करना आरंभ कर देता है। इसे यदि सूक्ष्म मस्तिष्क का सोचना-समझना कहा जाय तो अनुपयुक्त ही क्या है, यद्यपि स्थूल चिन्तन हमारा रुका हुआ है।
इसी सिद्धाँत पर मनोविज्ञान की मनःचिकित्सा पद्धति आधारित है। मनःशास्त्रियों ने इसी सिद्धाँत के आधार पर अनेकानेक प्रयोग कर यह निष्कर्ष निकाला कि यदि चेतन मस्तिष्क को उपयुक्त संदेश दिया जाय, तो अवचेतन मस्तिष्क में घुसी विकृतियों, व्यसनों, कुण्ठाओं और रोगों को निकाल-बाहर किया जा सकता है। इसी को ऑटोसजेशन, हेटरो सजेशन के माध्यम से क्रियान्वित भी किया जा रहा है एवं इसके परिणाम भी उत्साहवर्धक रहें हैं, इंग्लैण्ड के मनोवैज्ञानिक ए. स्मिथ ने एक पुस्तक लिखी है-”डज ब्रैन थिन्क, ह्वैन आई स्लीप?” इस पुस्तक में विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से उन्होंने यही सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जब हम सोते हैं अथवा जागते हुए सुषुप्ति जैसी स्थिति में पड़े रहते हैं, तब भी मन मस्तिष्क शाँत बना नहीं रहता, अपितु विचारों के ऊहापोह में उलझा रहता है और जो उसे काम-काम की बात लगती है, उसे वह सुरक्षित संरक्षित रख कर शेष को छोड़ देता है। अर्थात् उनके अनुसार मस्तिष्क इस दौरान सूचनाओं की छटनी में व्यस्त रहता है।
कहा भी गया है कि मस्तिष्क को सर्वथा विचार शून्य नहीं किया जा सकता। बाहरी तौर पर भी भ्रान्ति मात्र होती है। वैसे इससे कोई हानि नहीं होती-ऐसा मनःशास्त्रियों का विचार है। हाँ, चेतन मस्तिष्क के लगातार विचार में निमग्न रहने से सिर्फ न मन को, वरन् शरीर को भी कई प्रकार की हानियाँ पहुँच सकती है। थकान आती है और चिन्तन मनन की क्षमता में ह्रास होता है, सो अतिरिक्त।
मनोविज्ञान की इस विधा द्वारा मनोविकारों को भी हटाया-मिटाया जा सकता है। यदि हम चेतना मस्तिष्क को बार-बार कोई सूचना दें, तो देखा गया है कि अनेक प्रयासों के उपरान्त वह मस्तिष्क की सूक्ष्म परतों में धँस जाती है एवं वैसी ही क्रियाएँ व परिस्थितियाँ विनिर्मित करने लगती है जैसा संदेश होता है। यद्यपि सूचनाएँ दिन में कुछ ही बार देनी पड़ती हैं, किन्तु अवचेतन मस्तिष्क उस आधार पर अहर्निश कार्य करने लगता है। सूक्ष्म मस्तिष्क की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर यदि यह कहा जाय कि जब हम नहीं सोचते हैं, तो भी मस्तिष्क सोचता रहता है, एक अतिशयोक्ति मात्र नहीं है।