साधना सिद्धि की दिशा (Kahani)

September 1991

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महाभारत चल रहा था। कौरव पाण्डवों के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था। कर्ण और अर्जुन के बीच भयंकर बाण वर्षा चल रही थी।

अवसर पाकर एक भयंकर सर्प कर्ण के तूणीर में घुस गया। कर्ण ने बाण निकाला तो स्पर्श कुछ अनोखा लगा। उसने सर्प को देखा और आश्चर्य से पूछा तुम यहाँ किस प्रकार आ गये।

सर्प ने कहा अर्जुन ने एक बार खाण्डव वन में आग लगा दी थी। उसमें मेरी माता चल गई। तभी से मेरे मन में प्रतिशोध जल रहा है और इस ताक में था कि कोई अवसर मिले और मैं अर्जुन के प्राण हरण करूं। आप मुझे तीर के स्थान पर चला दें, मैं जाते ही अर्जुन को डस लूँगा। आपका शत्रु मर जायगा और मेरा प्रतिशोध शाँत हो जायगा।

कर्ण ने कहा अनैतिक उपाय से सफलता पाने का मेरा तनिक भी विचार नहीं है। सर्प देव आप वापस लौट जाएँ।

इन्द्रियों को साधा है। मन को, बुद्धि को संयत किया है, ठीक तरह से रखा है। यह साधना है। तीसरी आराधना वह जिसके लिए हमने आपको अभी कहा। यह है समाज के लिए देश के लिए, संस्कृति के लिए, भगवान के लिए जीवन जीना। भगवान का विराट रूप यही है। जन मानस को ऊँचा उठाने के लिए लगे रहने को आराधना कहते हैं। हमने जीवन भर आराधना, साधना व उपासना की है तथा उसका परिणाम हमारे सामने है। यही आप अपने जीवन में देखना चाहे तो आप भी प्रयोग कर सकते हैं। फिर आप हमें बताइए कि आपकी साधना सिद्धि की दिशा में फैली कि नहीं। हमारी बात समाप्त। ॐ शाँतिः।


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