सादगी सज्जनता की पोशाक

September 1991

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सज्जनता मनुष्य का वह विशिष्ट गुण है जिसके साथ उसकी गरिमा का सघन सम्बन्ध भी जुड़ा है। मानवता और सज्जनता दोनों ही एक दूसरे की सहेलियाँ है। जहाँ एक रहेगी, वहाँ दूसरी पहुँचे बिना नहीं रह सकती।

मानवी सद्गुणों का एकत्रीकरण ही सज्जनता है। उसके बिना कोई महान व्यक्तित्व उपलब्ध नहीं कर सकता। ओछे, अनगढ़, अनाचारी, उद्दण्ड व्यक्ति स्वेच्छाचार बरतते हैं और शालीनता की उस परिधि को तोड़ फोड़ कर मनमानी करते हैं जिसके अंतर्गत रहने के लिए ही उसे बाधित किया गया है।

सज्जनता के प्रत्यक्ष गुणों में वाणी की मधुरता और व्यवहार में शिष्टाचार का समावेश प्रमुख है, किन्तु यह प्रदर्शन पक्ष है अन्तःकरण में, व्यक्तित्व में जब वह प्रवेश करती है तो समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी के चार पायों पर उसे जमी हुई, खड़ी हुई देखा जा सकता है। व्यक्ति न उद्दण्डता बरतता है और न दूसरों को बरतने देता है। उसके अपने व्यवहार में तो नीति-निष्ठ और समाजहित का समावेश रहता ही है और जहाँ कहीं उनका उल्लंघन होता है वह उसे सिखाने से लेकर रोकने तक जो कुछ बन पड़ता है वह सब कुछ करता है।

सज्जनता अपने तक ही सीमित नहीं रहती वरन् जिन तक अपना प्रभाव पहुँचता है उन्हें भी उस अनुबंध में बाँधती है। सज्जनता का सादगी के साथ सीधा सम्बन्ध है। वही उसकी पहचान भी है। गले में बोर्ड किसी के लटका नहीं होता और न उसकी कोई वर्दी पोशाक होती है। पर उनका रहन-सहन इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम किये हुए होता है कि “सादा जीवन उच्च विचार” का व्यवहार करने वाले को सदा चिन्तन में उत्कृष्टता व स्वभाव में, रहन-सहन में सादगी को समाविष्ट करके चलना पड़ता है। जिसमें बनावट की, अमीरी की, फिजूल खर्ची की गंध आती है, उसे वह कभी अंगीकार नहीं करता। छैल-छबीलों जैसे वेश विन्यास बनाकर-जेवर, फैशन वाले वस्त्र पहनना, केश सजाना, शृंगार, प्रसाधनों की लीपापोती करना उसे भोंड़ेपन का, बचकानेपन का चिह्न मालूम पड़ता है। इन विन्यासों को धारण करने वाला समझता है कि इस विडम्बना को देखकर दर्शक हतप्रभ रह जायेंगे। समझेंगे इन्द्र या कुबेर में से यही कोई है। पर वस्तुतः हर कोई अपने-अपने काम में इतना व्यस्त है कि सड़क पर निकलने वाली बरातों की ओर भी किसी का सिर उठाकर देखने का मन नहीं करता। ऐसी दशा में कोई, किसी की बनावट सजावट पर ध्यान देगा, ऐसा संभव नहीं। फिर कोई किसी की साज-सज्जा देख भी ले तो उसे उससे क्या मिलता है? क्यों उसमें रुचि लेगा?

सजधज बाज स्त्रियों की ओर आमतौर से लोग कुदृष्टि से ही देखते हैं। भड़कीला शृंगार देखकर उनकी चंचलता एवं लोलुपता का अनुमान लगाते हैं। ऐसी गलतफहमी में कई बार इस प्रकार की दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं जिन्हें अशोभनीय या अश्लील भी कह सकते हैं। पैसा और समय गँवाने पर बन पड़ने वाला शृंगार अपने ऊपर लादने वाले के प्रति यही अनुमान लगता है कि यह कोई ओछा-बचकाना होना चाहिए। विज्ञजनों की दृष्टि में सादगी ही सबसे बड़ा फैशन है। उसके साथ गंभीरता और शालीनता दोनों ही जुड़ी रहती हैं। संसार के महामानव, मनीषी, जिम्मेदार स्तर के व्यक्ति सादगी के ही परिधान पहनते हैं। आहार-विहार की इतनी सादगी बरतते है जिसे देखकर औसत नागरिक को ईर्ष्या न हो। “पाखण्डी कहने की नौबत न आये।” “माले मुफ्त-दिले बेरहम” वाली उक्ति उन पर लागू होती है जो दान के पैसे से शाही ठाट-बाट बनाने और विलासियों के स्तर की मौजमजा उड़ाते हैं।

गाँधी जी रेल के थर्ड क्लास में सफर करते थे। कम से कम कपड़े और सस्ते से सस्ते उपकरणों से काम चलाते थे। सन्त बिनोवा ने भी वैसी ही शैली अपनाई थी। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर अपने उपार्जन का अधिकाँश भाग शिक्षा प्रसार में खर्च कर देते थे। अपनी गुजर गरीबी जैसी स्थिति में करते थे। महामना मालवीय को सरकार “सर” की उपाधि से और कलकत्ता विश्वविद्यालय “डॉक्टर” सम्मान देना चाहता था। उनने दोनों को अस्वीकार करते हुए लिखा “मेरे लिए पंडित उपाधि ही पर्याप्त है। उसी का दायित्व निभा सकूँ तो बहुत।” अमेरिका में स्वामी रामतीर्थ की तत्कालीन राष्ट्रपति से भेंट हुई थी और उनके प्रवचन-प्रतिपादनों से प्रभावित होकर कई विश्व विद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानक उपाधि देने की पेशकश की थी, पर उन्होंने उस प्रस्ताव को हँसकर टाल दिया और कहा “स्वामी” कहा जाना ही क्या कम शर्म की बात है? जो इलाज न जानते हुए भी अपने को डॉक्टर कहे जाने के उड़वाए। बहुत आग्रह करने पर भी उनने वह प्रस्ताव स्वीकार न किया।

सादगी और सज्जनता चन्दन वृक्ष की तरह है जो संपर्क क्षेत्र में शीतलता और सुगंध अनायास ही सुरभित करती रहती है। उधर से निकलने वाला कोई भी व्यक्ति सराहना किये बिना नहीं रहता। कमल कीचड़ में उत्पन्न होने पर भी समूचे तालाब को शोभायमान कर देता है। गरीबी में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वह किसी की आन्तरिक वरिष्ठता पर आँच आने का अवसर मिलने दे। सन्तों की झोंपड़े में रहने से भी गरिमा अक्षुण्ण बनी रहती है। चाणक्य फूस की झोपड़ी में रहते थे। पर वे उस विशाल साम्राज्य के प्रधान मंत्री और नालंदा विश्व विद्यालय के कुलपति भी थे। सादगी ने उनका गौरव गिरने नहीं दिया, वरन् अधिकाधिक बढ़ाया ही। राजा जनक अपने व्यक्तिगत निर्वाह के लिए कृषि करते और स्वयं हल चलाते थे। शबरी बाह्य दृष्टि से किसी बड़े सम्मान की अधिकारिणी नहीं थी, पर उसकी आन्तरिक विशिष्टता ने गरिमा को इतना बढ़ाया कि राम को उसके घर जाकर झूठे बेर खाने पड़े। सुदामा की गरीबी में छिपी हुई महानता कृष्ण को इतनी अधिक प्रभावित कर सकी कि उनने अपनी सारी सम्पदा ही द्वारिका में सुदामा पुरी के लिए हस्तान्तरित कर दी। साधु और ब्राह्मण सभी अपरिग्रही मितव्ययी रहते थे, किन्तु उनका यह आत्म संयम का विषय ही रहा और जन-जन का उन्हें अभिनन्दन मिला। इसके विपरीत बड़े ठाट-बाट वाले, सोने-चाँदी के छत्र धारण करने वाले उद्धत और अहंकारी ही गिने जाते हैं। उनकी प्रदर्शन प्रियता और अहंकारी उद्धतता मात्र ईर्ष्या द्वेष का, आलोचना-निन्दा का, विषय बनती है।

कोई समय रहा होगा जब सामन्ती ठाट-बाठ और उनका आतंक लोगों को डराकर उन्हें सम्मान प्रदर्शित करने के लिए बाधित करता था। कोई समय था जब यशलोलुप अपनी प्रशंसा सुनने सुनवाने के लिए चारणों को विपुल उपहार देते थे, पर अब चापलूसी व चमचागिरी क्षुद्रता का विषय बन गई है। उसे कदाचित ही सभ्य समुदाय में कहीं पसंद किया जाता हो। विशेषतया जब अपनी हैसियत से अधिक खर्च इन विडम्बनाओं से किया जाता है। जो लोग उसे चोर-जालसाज होने जैसे आक्षेप लगाने में भी नहीं चूकते। फिजूल खर्ची अनेक दुर्गुणों की जननी है। जिसे ठाट-बाट में पैसा उड़ाने की लत है, उसे चरित्र की दृष्टि से भी संदिग्ध माना जाता है क्योंकि न्यायोचित रीति से इतना ही कमाया जा सकता है जिससे सामान्य स्तर का गुजारा हो सके। फिर यदि आमदनी बढ़ी हुई


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