मरण, एक बदलाव मात्र

September 1991

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मृत्यु का नाम सुनते ही समूचे अस्तित्व में कँपकँपी की लहर दौड़ जाती है। पर क्या इसलिए कि वह सचमुच ही डरावनी है? हमें सिर्फ अविज्ञात से डर लगता है, अपरिचित के बारे में अनेकों आशंकाएँ घेरे रहती हैं। अनिश्चय भरी अविश्वस्त स्थिती ही डरावनी होती है। रात्रि के अन्धकार में डर लगता है पर किसका? चोर का नहीं इस सुरक्षित स्थान पर उसकी पहुँच नहीं। सर्प का नहीं इस ऊँची अट्टालिका के संगमरमर से बने फर्श तक आ सकने का उसका कोई रास्ता नहीं। भूत का नहीं वह तो भ्रम मात्र है उसके अस्तित्व पर कोई भरोसा नहीं। फिर वही सवाल अँधेरा क्यों डरा रहा है? सुनसान में सिहरन क्यों हो रही है? निश्चय ही यह अनिश्चय की स्थिति है जो अपरिचित से डरने को बाध्य करती है। अपरिचित अर्थात् अज्ञात। सचमुच अज्ञान सबसे अधिक डरावना है। मौत अज्ञान की छाया मात्र है।

एक गड़रिया राजकीय सम्मान के लिए सिपाहियों द्वारा राजदरबार में उपस्थित किया गया। वह बुरी तरह काँप रहा था। भय था कि न जाने उसका क्या होगा, पर जब उसे सम्मानित किया गया, उपहारों से उसे लाद दिया गया तब वह सोचने लगा मैं व्यर्थ ही थर-थर काँपता रहा अपना खून सुखाता रहा।

डरावनी मृत्यु आखिर है क्या? तनिक समझने की कोशिश करें तो मालूम पड़ेगा और कुछ नहीं तनिक विश्रान्ति भर है। अनवरत यात्रा करते-करते जब थक कर चेतना चूर हो जाती है, तब वह विश्रान्ति चाहती है। नियति उसकी अभिलाषा पूर्ण करने की व्यवस्था बनाती है। थकान को नवीन स्फूर्ति में बदलने वाले कुछ विश्राम के क्षण वस्तुतः बड़े मधुर और सुखद होते हैं। क्या उन्हें दुखद दुर्भाग्य माना जाय?

सूर्य प्रति दिन अस्त होता है, पर वह किसी दिन मरता नहीं है। अस्त होते समय विदाई की, ‘अलविदा’ मन को भारी अवश्य करती है, पर यह मान कर संतोष कर लिया जाता है कि कुछ समय बाद उल्लास भरे प्रभात का अभिनन्दन प्रस्तुत होगा।

पके फल को प्रकृति उस पेड़ से उतार लेती है इसलिए कि उसका परिपुष्ट बीज अन्यत्र उगे और नये वृक्ष के रूप में स्वतंत्र भूमिका सम्पादन करें। क्या वृक्ष से अलग होते समय वियोग की-वधू के पतिगृह में प्रवेश की तैयारी नहीं है? क्या बिछुड़न की व्यथा में मिलन की सुखद संवेदना छिपी नहीं होती। इन विदाई के क्षणों को दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य? मृत्यु को अभिशाप कहें या वरदान? इसका निर्णय करने के लिए गहरे चिन्तन की आवश्यकता है।

मरण के कन्धों पर बैठकर हम पड़ोस की हाट देखने भर जाते हैं और शाम तक घूम-फिर कर घर आ जाते हैं। मृत्यु के बाद भी हमें नीले आसमान की चादर के नीचे रहना है। अपनी परिचित धूप और चाँदनी से कभी वियोग नहीं हो सकता। जो हवा चिरकाल से गति देती रही है उसका सान्निध्य पीछे भी मिलता रहेगा।


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