एक साँप ने नारद जी से दीक्षा लेकर लोगों को काटना बंद कर दिया। वह सड़क के किनारे ही रहता था। बूढ़ा भी हो चला था।
बच्चे उसे पानी का साँप समझ कर छेड़ते, मारते और हैरान करते पर वह नारद जी की शिक्षा के अनुरूप किसी से बदला तो नहीं लेता था पर दुखी अवश्य रहता था।
एक दिन फिर नारद जी उधर से गुजरे। साँप ने उनसे दीक्षा लेने के बाद जो दुर्गति सहनी पड़ रही है उसका विवरण सुनाया।
नारदजी ने कहा मैंने काटने के लिए मना किया था। फूँसकारने के लिए नहीं। अब फुंसकारना आरंभ करो, लोग डरेंगे तो फिर तुम्हें नहीं सतायेंगे।
लेस्ले स्टीफन ने अपने ग्रंथ “सान्स आफ एथिक्स” में लिखा है कि “किसी के कार्य के स्वरूप को देखकर उसे नीति या अनीति की संज्ञा देना उचित नहीं। कर्ता की नीयत और कर्म के परिणाम की विवेचना करने पर ही उसे जाना जा सकता है।”
वस्तुतः नैतिकता का संबंध जीवन के समग्र स्वरूप से है। कोई व्यक्ति एक विषय में नियमों का परिपालन करे और अन्य विषयों में अनीति बरते तो उसे न धार्मिक कहा जा सकता है, न आस्तिक, न नैतिक। हमारा चिंतन, चरित्र और व्यवहार आदर्शों से ओत प्रोत हो। न केवल व्यक्ति जीवन में संयम सदाचार बरतें वरन् अन्यान्यों के प्रति भी हमारा उदात्त दृष्टिकोण रहे, तभी उसे समग्र नैतिकता कहा जा सकता है।