दुखी की पीड़ा

September 1991

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रह-रह कर उठते कराहटों, के मन्द स्वरों से वातावरण स्पन्दित हो रहा था। इस करुण रव में क्षीणता-मन्दता के बावजूद एक तीव्रता थी। पुकार की तीव्रता जो मठ के उद्यान में बैठे पारस्परिक चर्चा में निमग्न प्रत्येक भिक्षु के हृदय को स्पर्श कर एक निराशा के साथ वापस लौट जाती। स्पर्श अप्रभावी सिद्ध हो रहा था। पुकार अपनी तीव्रता के बावजूद निरर्थक थी। तब क्या सैकड़ों की संख्या में उपस्थित जनों के शरीर में हृदय न था? यदि था तब .....? किन्तु हृदय सिर्फ शरीर का अवयव भर तो नहीं। सिर्फ रक्त-माँस से बना पिण्ड तो नहीं। यह रक्त संचरण प्रणाली का केन्द्र होने के अलावा और भी तो कुछ है? जहाँ से मन प्राण में भावनाओं का संचार होता है।

कराहटों की खोज अधूरी रह गई। पुकार के करुण रव भिक्षुमण्डल में अचानक मच गई हड़बड़ी में विलीन होने लगे। प्रत्येक भिक्षु के चेहरे पर आश्चर्य घना होता लगा। पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ आज . . . .अ. . चा. . . .नक फुसफुसाहट उठी और वायु के झोंकों में विलीन हो गई। भीड़ में से एक दो व्यक्ति मठ के संचालक को बुलाने दौड़ गए। कुछ ही पलों के अन्तराल में मठ के संचालक अपने वरिष्ठ सहकर्मियों के साथ मुख्य द्वार पर उपस्थित हो गए।

इतनी देर में तथागत द्वार में प्रविष्ट हो चुके थे। चरण वन्दन के लिए उमड़ती भीड़ को आनन्द ने हाथ के इशारे से वर्जित कर दिया। बुद्ध ने उपस्थित भिक्षु समुदाय पर नजर डाली। उनके प्रशान्त मुख मण्डल पर मुसकान की हलकी रेखा उभरी और एक गहरी प्रशान्ति में विलीन होने लगी। कराहटों के क्षीण रव यदा-कदा मौन को भंग कर देते।

तथागत के कदम मठ के कोने में स्थित एक कक्ष की ओर बढ़ रहे थे। भिक्षु आनन्द उनके साथ थे। इन दोनों के लिए मठ के परिसर का प्रत्येक स्थान भली प्रकार परिचित था। संचालक के मन में कुछ शंका हुई। साथ में उपस्थित वरिष्ठ सदस्यों की भौंहों पर बल पड़े। यह कक्ष तो पिछले कई मास से सर्वथा उपेक्षित था। कोई कुछ अधिक सोचता इससे पहले महात्मा बुद्ध कोने में स्थित कक्ष में पहुँच चुके थे। भदन्त आनन्द भी पीछे थे। मठ के संचालक तथा अन्य वरिष्ठ सदस्यों ने सहमते हुए प्रवेश किया।

बुद्ध ने देखा एक रुग्ण भिक्षु अपनी कुटिया में अकेला बेसुध पड़ा है। किसी के द्वारा परिचर्या न किए जाने के कारण वह मल-मूत्र से सन गया था। देखते ही तथागत उसके कष्ट से एकाकार हो गए। हल्के से उसके माथे का स्पर्श करते हुए बोले “तुम्हें क्या कष्ट है भाई?”

“अतिसार है भगवान!” भिक्षु की पीड़ा में डूबी आवाज उभरी।

“कोई भी तुम्हारी परिचर्या को नहीं आया।” कथन में आश्चर्य था।

“नहीं।” एक शब्द में सारे अस्तित्व की निराशाजनक वेदना साकार हो उठी।

“ऐसा क्यों हुआ भिक्खुनाल तुम्हारी देखभाल नहीं करते?” “भगवन्! वे सब आत्मकल्याण और लोक सेवा में निरत रहते हैं, मैंने यही सुना है। शायद उन्हें व्यक्ति सेवा की फुरसत नहीं।”

अपने पास खड़े भिक्षुओं से कुछ न कहते हुए तथागत ने भदन्त आनन्द से कहा-”जाओ आनन्द जल ले आओ। हम इस भाई की सेवा करेंगे। “

जल कलश आने पर भगवान ने स्वयं अपने हाथों से भिक्षु के शरीर की सफाई की। इतने में आनन्द ने पूरे कमरे को साफ कर डाला। जीवन और स्थान दोनों में नई प्राण चेतना संचरित हो उठी।

संध्या होने को थी। संध्याकालीन प्रार्थना के लिए सभी भिक्षुगण एकत्र हो रहे थे। परिचर्या के उपरान्त तथागत सभा में पहुँचे। उन्होंने बिना किसी भूमिका के भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा-”भाइयो क्या हम में से कोई एक भिक्षु रोगी है।” “हाँ है।” उसकी देख भाल कौन कर रहा है?

प्रश्न के उत्तर में सभी चुप थे। थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा। स्वयं बुद्ध ने मौन भंग करते हुए कहा-”तुम सब लोक सेवी हो, आत्म-साधना मार्ग के पथिक हो। इस मार्ग पर किसकी उपलब्धियाँ क्या है? यह तो ज्ञात नहीं। पर ध्यान रखो इन दोनों के खरेपन की कसौटी है दुःखी जनों की निष्काम सेवा। साधना और लोकसेवा दोनों ही मानसिक कुशलता और बौद्धिक प्रखरता से नहीं उपजा करतीं। वाणी की प्रगल्भता भी इनके विकास के लिए यथेष्ट नहीं। हृदय की वृत्ति के विकास का एकमेव साधन है भावपूर्ण निष्काम सेवा।” हृदय कुहर से निकली तथागत की भावपूर्ण वाणी उपस्थिति प्रत्येक जन को आत्म परीक्षण के लिए विवश करने लगी।


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