हमारी बुद्धि ने सोचा (Kahani)

September 1991

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एक संत बड़े संयमी थे। बहुत आधार विचार से रहते। फिर भी वे रोगी बने रहते। चिकित्सा से भी कुछ लाभ न हुआ।

एक दिन वे किसी तत्वज्ञानी के पास इसका कारण पूछने गये। उनने लम्बी पूछ ताछ की और वस्तु स्थिति को समझा।

तत्वज्ञानी ने अपना निष्कर्ष बताया कि शरीर से तो आपकी संयम साधना ठीक चल रही है। पर मन में वासनाएँ, तृष्णाएँ, सदा उमड़ती घुमड़ती रहती है मात्र लोक लाज से ही उन्हें आप कार्यान्वित नहीं कर पाते। मन की वह घुटन ही आपको असमंजस में डाले रहती है और बीमार करती है।

उनका निर्णय था कि यदि संयमी होने का प्रदर्शन करना है तो मन को भी सही करें और भीतर बाहर से, एक से रहें। अन्यथा गृहस्थ रहकर साधारण जीवन बिताना ही ठीक है। भीतर बाहर से एक सी स्थिति में रहना ही श्रेयस्कर है।

संयमी ने वही किया और वे निरोग हो गये।

गया। क्योंकि हम सेवा करते हैं। सेवा अर्थात् प्यार। प्यार माने सेवा। हमने दूसरों के लिए जीवन भर श्रम किया है, प्यार दिया है-जीवन भर प्यार बाँटा है व बदले में समेटा है। हमारी जिन्दगी प्यार में लबालब व सराबोर है। ये लाखों आदमी जो हमारे इशारे पर चलते है, हमारे व्याख्यानों का फल नहीं है, यह हमारे जीवन के उस हिस्से का परिणाम है जिसके द्वारा हमने लोगों को प्यार किया व दिया है। बदले में पाया है, यह सही है।

बुद्धि हमारी इतनी बड़ी कि हम लाखों आदमियों की टेढ़ी बुद्धि को उलटकर सीधा कर देते हैं। हमने न एम.ए. किया, न कोई डिग्री ली। पर हम प्लानिंग करते हैं। सारे समाज का सारे विश्व के कायाकल्प का प्लानिंग। जो कोई भी कमीशन नहीं कर सकता। साहित्य जो हमने लिखा है व वेद-पुराण आदि का भाष्य किया है, इससे अंदाज मत लगाइए कि हम कितने बुद्धिमान हैं। यह देखिए कि हमारी बुद्धि कितनी बड़ी-बड़ी सार्थक योजनाएँ बनाती है। किस दिशा में चलती है। सो युग का नव निर्माण कैसे हो, यह हमारी बुद्धि ने सोचा है व करेगी।

चौथी सम्पत्ति- हमारा धन। धन कहाँ है आपके पास? धन हमने तो कमाया नहीं पर हमारे पूर्व जन्म का कमाया हुआ था जो हमारे पिताजी छोड़ कर मरे थे। 2000 बीघा जमीन हमारे पास थी। इसे जब हम समाज सेवा में पदार्पण करने लगे तो बच्चों से पूछा कि पुश्तैनी जायदाद होने के नाते कानूनी हक तो तुम्हारा भी है। लेकिन हमारी इच्छा है कि इस हक को तुम छोड़ दो क्योंकि यह कानून चोरों ने बनाया व चोरों के लिए बनाया है। नैतिकता का कानून भिन्न है। इस जायदाद को समाज को दे देना चाहिए। बताओ, क्या राय है तुम्हारी। दोनों बच्चों ने कहा-पिताजी! अब हमें पढ़ा दिया है, हमें लायक बना दिया है। अब हमें एक पैसा भी नहीं चाहिए। हमने सारी जमीन दान कर दी। पत्नी के पास जो जेवर थे, वे भी बिक गए। किश्तों में हम देते चले गए व किश्तें लगती चलीं गयी। पहली उस स्कूल में लगी जो हमारे गाँव में बना व अब एक इण्टर कॉलेज बन गया है। फिर अगली हमने गायत्री तपोभूमि में लगा दी। इस में औरों का भी पैसा लगा है पर पहली किश्त हमारी है। आपने शाँतिकुँज देखा है, ब्रह्मवर्चस् देखा है, चौबीस सौ शक्ति पीठें देखी हैं। करोड़ों रुपये की बिल्डिंगें है यह। इनसे आपको अंदाज लगेगा कि कितना गुना यह हो गया। सहस्रकुंडी यज्ञ जो हमने मथुरा में किया से लेकर यहाँ के रोजाना खर्च का आप हिसाब लगाएँ तो पता चलेगा कि लाखों रुपये रोज का खर्च है। न जाने कहाँ से आता है यह। हमने प्रतिज्ञा की हुई है कि हम मनुष्य के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। लेकिन भगवान हमें सब देता चला गया। हमने न कभी ईमान गँवाया न भगवान को। इसका परिणाम यह कि जितना हमने बोया, उससे कहीं अधिक काटा है। साधना की सिद्धि जितनी मिलनी चाहिए थी, हमें मिलती चली गयी। अभी और आपका बचा हुआ समय है, उसके बारे में बताइए? जब तक हमारा शरीर है, तब तक व्यक्ति के ही नहीं समाज के निमित्त हमारा रोम-रोम लगेगा, यह हमारा संकल्प है।

साधना से सिद्धि का सिद्धाँत उपासना, साधना, आराधना इन तीन सूत्रों पर चला है। ये तीनों क्या है? ये है जमीन, खाद और पानी। भगवान के चरणों में हमने अपने आपको समर्पित किया है व भगवान जितने शक्तिशाली है, उतने ही हम हो गए। ईंधन को आग में डाल देते हैं, वह भी उतना ही गरम और आग जैसा हो जाता है। हम भी वैसे ही हो गए हैं। यह उपासना है। साधना हमने जीवन भर की है। साधना अर्थात् माला जपना नहीं, साधक का जीवन जीना। हमने अपनी


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