संतानें, जो इतिहास में अमर हो गईं

February 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सम्राट अशोक राजदरबार में बैठे एक भिक्षु से बात कर रहे थे। बातों के बीच राजकुमार महेंद्र आ पहुँचे। भिक्षु की निस्पृह दृष्टि और गहन-गंभीर वाणी ने उनको अत्यधिक प्रभावित किया। जिज्ञासावश आखिर पूछ ही लिया।

“पिता जी! आपका परिचय?” “बेटा! यह है— महास्थविर योग्गालि पुत्तत्तिस। जनमानस को परिष्कृत करने, उसे जीवन विद्या सिखाने के लिए इन्होंने समूचा जीवन संघ को समर्पित कर दिया है।" "संघ क्या होता है, देव?" महेंद्र ने फिर प्रश्न किया।

"तात! जो लोग लौकिक आकर्षणों और एैषणाओं का त्यागकर लोकहित में परिव्रज्या का व्रत लेते हैं, उनके समूह का नाम संघ है।"— इस बार उत्तर दिया महास्थविर ने।

“मैं भी इस समूह में आना चाहता हूँ। क्या मुझे भी परिव्रज्या मिलेगी?"— महेंद्र ने बड़े उत्साह के साथ कहा। "नहीं बेटा! अभी लोकोपभोग के योग्य हो तुम। खूब खाओ-पियो और मौज करो।" महात्यागी अशोक को भी पुत्रमोह तो था ही। उसने मना कर दिया; परंतु पुत्र ने अपने पिता से भी एक कदम आगे बढ़कर यह मोह तोड़ दिया।

राजपुत्र बोले— “सांसारिक सुखों की निस्सारता और सद्ज्ञान-प्रसार के महत्त्व को समझकर कौन बुद्धिमान श्रेष्ठ को ठुकराना और निकृष्ट को अपनाना चाहेगा?”

सोलह वर्ष के किशोर के इस उत्तर ने महास्थविर सहित अशोक और माता देवी को हतप्रभ कर दिया। महास्थविर बोले— “राजन! लगता है महेंद्र के अंतराल में तथागत की प्रेरणा उतरी है। शायद यही आगे चलकर ईश्वरीय वाणी का प्रसार करेगा।”

अपने विचार का समर्थन पाकर महेंद्र एक बार पुनः उत्साह के साथ बोला— “देव! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आज परिव्रज्या ग्रहण कर लूँ। प्रव्रजित होने पर मेरा और आपका दोनों का ही कल्याण है।”

“ठीक है बेटा! महाभिक्षु जैसा परामर्श दें।" और महाभिक्षु ने निर्णय दिया, परिव्रजित होने के लिए किसी भी व्यक्ति को बीस वर्ष से कम नहीं होना चाहिए। तब तक घर में ही रहकर आत्मनिर्माण का आदेश हुआ।"

वय की बीसवीं-इक्कीसवीं संधिवेला में महास्थविर ने राजपुत्र महेंद्र को प्रव्रज्या दी। साथ में महेंद्र की कनिष्ठ बहिन भी लोक-कल्याण के लिए व्रतशील हुई। दोनों भाई-बहिन स्थान-स्थान पर जीने की निर्माणपद्धति सिखाते। नारियों में कर्त्तव्यबोध, आत्माभिमान जाग्रत करने की जिम्मेदारी संघमित्रा ने उठाई। महेंद्र पुरुषों में कुरीतियों, अनीतियों को उखाड़ फेंकने के लिए साहस जगाने लगे। इस कार्य को करते हुए उन्होंने तैंतीस वर्ष का जीवन पार कर लिया। तो एक दिन महास्थविर ने दोनों भाई-बहिन को आमंत्रित कर कहा— "इस समय सिंहल (लंका) वासी अपनी सृजनात्मक क्षमताओं को भूलते जा रहे हैं। उन्हें जीवन के प्रति अविश्वास हो गया है। उन्हें सचेत करने के लिए उनमें प्राण फूँकने के लिए तुम दोनों को ही जाना होगा।"

सद्ज्ञान के प्रचार-प्रसार की जहाँ भी आवश्यकता हो, लोकसेवा के लिए व्रतनिष्ठजन सदैव तैयार रहते हैं। महेंद्र और संघमित्रा ने तुरंत सहमति दी। जलमार्ग की बाधाओं तथा सिंहल नरेश की नीतियों से उन्हें अवगत करा दिया गया।

महाभिक्षु की तथा उपस्थित स्थविरों की वंदना कर दोनों सिंहल अभियान पर चल दिए। उनके पिता ने सांस्कृतिक दिग्विजय का जो स्वप्न देखा था, उसी दिशा में महेंद्र के चरण बढ़े थे। अशोक को इस अवसर पर आमंत्रित किया गया। पुत्र को उत्साहपूर्वक जाते देख अशोक के नेत्र सजल हो उठे। पिता के चरणों में प्रणामकर भाई-बहिन नाव पर जा बैठे।

तब समुद्री यात्रा दुष्कर थी। थोड़ी ही दूरी पर तूफान आ गया, नाव उलट गई; पर जिन कदमों ने पीछे मुड़ना सीखा न हो उसे बाधाएँ क्या कर सकती हैं? उन्होंने सोचा जिस अभियान के लिए वह चले हैं, उसे छोड़कर लौट जाना मानवोचित नहीं है। लाख बाधाएँ क्यों न आए, शूरवीर ‘कार्यं वा साधयामि, शरीरं वा पातयामि' सिद्धांत का अनुसरण करते हैं। नाविक तो तैरकर वापस आ गया; परंतु संघमित्रा और महेंद्र सिंहल की दिशा में बढ़ने लगे। सुयोग से कुछ ही दूरी पर उन्हें उलटी हुई नाव मिल गई, जिसको लेकर उन्होंने अपनी यात्रा पूरी कर ली।

लंका की भूमि पर चरण रखते ही दोनों भाई-बहिन भगवान बुद्ध द्वारा प्रदत्त कार्यसिद्धि की ओर बढ़े। नगर तक पहुँचने के पूर्व वनों में होकर गुजरना पड़ता था। राह में देखा कि एक हिरण पड़ा तड़प रहा है। उसके गर्दन में घुसे तीर को जैसे ही निकाला उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। तभी वह शिकारी आ पहुँचा जिसके बाण का निशाना वह मृग था। महेंद्र ने देखते ही कहा— "धर्मसम्राट! तिष्य के शासन में आप लोग इतनी निर्दयतापूर्वक प्राणियों का वध करते हैं, वह भी खिलवाड़ के लिए।”

शिकारी जो राजोचित वेश में था। महाभिक्षु महेंद्र के चरणों में गिर पड़ा। अपना परिचय देते हुए कहा—"भंते! मुझसे भूल हो गई। मैं ही सम्राट तिष्य हूँ, जो मात्र विनोद के लिए इन निरापराध पशुओं को मारता रहता हूँ।”

सम्राट तिष्य के इस कथन पर भिक्षु महेंद्र बुदबुदाए— "ठीक ही कहा था महास्थविर ने, यहाँ के निवासी क्रूर और नृशंस होते जा रहे हैं। इनकी सोई संवेदनाओं को जगाना होगा।"

सम्राट तिष्य ने दोनों का आदर-सत्कार किया और राजमहल में ले आए। दूसरे दिन महेंद्र ने तिष्य को जीवनमार्ग की शिक्षा दी और चलने को उद्यत हुए। सम्राट ने कहा— “आप यहीं निवास कीजिए। राज्य के नागरिकों तक आपका संदेश यहीं से पहुँचा दिया जाएगा।”

जनमानस के सफल जानकार परिव्राजक महेंद्र को तिष्य के इस कथन में वहाँ के विहार और धर्म-प्रचारकों की रीति-नीति दिखाई दी। उन्होंने बौद्ध विहारों को देखने की इच्छा व्यक्त की। आशंका सच निकली। सांसारिक मनुष्यों से अधिक विषय, वासना और भोगों में लिप्त धर्म का नेतृत्त्व उस तंत्र के मूल प्रयोजन को कहाँ से पूरा कर सकेगा? संघ का गठन तो इस उद्देश्य से हुआ था कि व्यवस्थित रूप से लोगों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया जाए, परंतु लोकश्रद्धा का अनुचित लाभ उठाकर भिक्षु धर्मजीवी हो गए हैं। सेवा का मार्ग उपभोग का माध्यम बन जाए तो गड़बड़ी होना स्वाभाविक है।

राजभवन में निवास को अस्वीकृतकर स्थविर महेंद्र ने तप-साधना का मार्ग अपनाया। दोनों तपस्वीगण लोक-मानस के कल्मषों को धोने में निरत हो गए। उन्होंने पहला काम किया व्यक्तियों को ढालने का; भटके परिव्राजकों में कर्त्तव्यबोध जगाने का। श्रद्धास्पद होकर भी श्रद्धातत्त्व के मूल कारणों की उपेक्षा भर्त्सना के योग्य है। यह कहकर उन्होंने परिव्राजकों को उनका समाज के प्रति दायित्व समझाया।

परिव्राजकों की दशा में सुधार करने के बाद वह घूम-घूमकर लोक-जीवन को दिशा देने में संलग्न हुए। धर्मतंत्र का परिष्कार धार्मिक समाज की पहली आवश्यकता है। जब तक यह क्षेत्र विकृत पड़ा रहेगा, जनमानस में आदर्शनिष्ठा नहीं जाग सकती। साठ वर्ष तक कार्यरत रहने वाले इस तपस्वी ने चैत्य पर्वत पर अंतिम वर्षावास किया, इस वर्षावास में उन्होंने शरीर छोड़ दिया। भाई के आदर्शों को अपनाने वाली बहिन ने सभी को आश्वस्त किया। 'स्वयं को समझो, कर्त्तव्य को पहचानो' का संदेश देती हुई वह भी कुछ समय के पश्चात शरीर से परे हो गई।

यों सम्राट अशोक के पाँच पुत्र थे। सभी क्रमशः एक-एक करके राजसिंहासन पर बैठे। इतिहास उनके लिए श्रद्धारहित होकर चार-चार लाइने लिखता है, उनके नाम भी किसी को नहीं विदित हैं; जबकि राज्यपद के अधिकारी होते हुए उसे छोड़ देने वाले राजपुत्र महेंद्र इतिहास में अमर हो गए हैं। वस्तुतः अधिकार या पद नहीं, मनुष्य को महान बनाता है— उसका त्यागमय जीवन और उज्ज्वल चरित्र। ऐसे ही त्यागी और चरित्रवान युवक को परिव्राजक परंपरा पुनः आमंत्रित कर रही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles