सुयोग-सौभाग्य को चूकें नहीं

February 1990

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आलसी-प्रमादियों की इसलिए भर्त्सना होती रहती है कि वे नियत समय पर, नियत काम करने में टाल-मटोल और हील-हुज्जत करते रहते हैं। समय चूकने पर पछताना ही शेष रह जाता है। हर काम मनमर्जी के अनुसार कभी भी कुछ कर लेने की बात सोचने वालों के मनोरथ अक्सर निष्फल ही रह जाते है। समय तो अत्यधिक मूल्यवान है ही, उसके संबंध में इस मान्यता से सभी सहमत हैं कि गुजरा समय फिर वापस लौटता नहीं और इस कारण हुई क्षति की पूर्ति उसी रूप में फिर कभी बन नहीं पड़ती।

प्रस्तुत समय बड़ा असाधारण व उथल-पुथल से भरा है। इस बार का सदी परिवर्तन तो स्रष्टा की ऐसी योजनाओं से भरा-पूरा है, जिसे महाक्रांति का युग-परिवर्तन भी कहा जा सकता है। बीसवीं शताब्दी में मनुष्य की अभिनव उपलब्धियों ने उसे उन्माद जैसी परिस्थितियाँ अपनाने के लिए उत्तेजित कर दिया है। सोने का एक अंडा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर एक ही दिन में सारे अंडे निकाल लेने और तुर्त-फुर्त धनाध्यक्ष बन जाने के लालची की तरह आज का विज्ञान और बुद्धिवाद अपनी चतुरता का ऐसा ही परिचय दे रहा है। उसे आत्मघात में लगी आतुर दौड़ या होड़ भी कह सकते हैं।

मनुष्य को समझदारी देकर स्रष्टा निश्चित हो गया था कि उसका वरिष्ठ पुत्र यह सुख, समृद्धि और प्रगति का संतुलन बनाए रहेगा; पर जब सर्वत्र उद्दंडता, उच्छृंखलता का माहौल बना दीखता है तो नियंता को अपने विशेष दायित्व को अपने हाथों लेना पड़ रहा है। प्रत्यक्षवादी बुद्धिवाद ने नीति, न्याय, औचित्य, विवेक और मानवी मूल्यों को तहस-नहस जैसा करके रख दिया है। विलास और वैभव की बढ़ी-चढ़ी ललक अपने आयुध से न नैतिक मूल्यों को जीवित रहने दे रहा है और न सामाजिक परंपराओं का मानवोचित निर्वाह आवश्यक समझा जा रहा है। फलस्वरूप जिधर भी नजर उठाकर देखा जाए, अनाचार और अपराधों का प्रचलन भयंकर बाढ़ की तरह विकराल होता चला जा रहा है। जनसमुदाय दुर्बलता, रुग्णता, उद्विग्नता, चिंता, आशंका और अराजकता जैसी असुरक्षा से घिरता जा रहा है। यह सब कुछ और इसी तरह चलता रहा तो कुछ ही दिन में सर्वनाश की स्थिति उसी प्रकार आ जाएगी जैसे कि बरसाती उद्भिज शीतकाल आने से पूर्व ही अपना अस्तित्व गँवा बैठती है।

अपनी सुगढ़ कला-कृति इस विश्व-वसुधा की ऐसी दुर्गति भरा अंत नियंता को स्वीकार नहीं, इसलिए उसने विकृतियों को निरस्त करने और सुव्यवस्था की पुनः संस्थापना करने का निश्चय कर लिया है, साथ ही उस निर्णय को अध्यादेश की तरह तुर्त-फुर्त लागू कर देने का निश्चय कर लिया है। प्रांतीय सरकारों पर राष्ट्रपति शासन का अंकुश इसी प्रकार चरितार्थ होता है। अराजकता को सुव्यवस्था में बदल लेने का उपक्रम पूराकर दिखाने के लिए इक्कीसवीं सदी का समय पर्याप्त समझा गया है। युगसंधि के वर्तमान दस वर्षों में ऐसी ही धुलाई-रंगाई का, गलाई-ढलाई का उपक्रम चल रहा है।

आमतौर से भक्त, भगवान को अनुग्रह प्रदान करने के लिए पुकारते रहते हैं, पर कई बार ऐसे समय भी आते हैं जब असामान्य स्थितियाँ बन जाने पर बड़ों को भी छोटों की सहायता के लिए पुकारना पड़ता है। अपने-अपने समय पर अपनी-अपनी उपयोगिता घटती-बढ़ती है। कभी नाव पानी पर तो कभी नाव में पानी भरने के दृश्य भी देखे जाते हैं। इन दिनों भगवान ने भक्तों को पुकारा है। सामान्यतया सेना में भर्ती होने के लिए युवकों की एक बड़ी पंक्ति, प्रार्थना पत्र लिए लंबी लाइन में खड़ी दीखती है, पर कभी-कभी विषम परिस्थितियों में युवकों को ढूँढ़-ढूँढ़कर अनिवार्य रूप से सेना में भर्ती होने के लिए बाधित करने वाले कानून लागू किए जाते हैं। शत्रु का आक्रमण होने पर प्रायः जबरिया भर्ती लागू करने में शासन संचालकों को संकोच नहीं होता। इन दिनों भगवान ने भक्तों को पुकारा है और आग्रह-अनुरोध करने के अतिरिक्त यह भी कहा है कि, "जो इस आड़े समय में अपनी भाव-भरी स्वेच्छा-सहयोग प्रदान करेंगे, उन्हें देशभक्ति का प्रमाण-परिचय देने वाला पुरस्कार भी दिया जाएगा, प्रशस्ति पत्र भी, जिसे देखकर उनके स्वजन-संबंधी और अगली पीढ़ी वाले भी गर्व-गौरव का अनुभव करते रह सकें। यह समय ठीक इसी स्तर का है।"

उपयुक्त समय पर, उपयुक्त कृत्य कर-गुजरने की जागरूकता पाई गई या नहीं, यह परख ऐसे ही विषम अवसरों पर होती है। जो उसमें खरे उतरते हैं, वे अपनी वरिष्ठता और विशिष्टता का प्रमाण-परिचय देते हैं, तदनुसार सम्मानित भी होते हैं, किंतु जो क्षुद्र दुर्बलताओं से आक्रांत होकर समय की पुकार को अनसुनी करते हैं, उनका यह सोचना गलत सिद्ध होता है कि झंझटों में न पड़कर चैन के दिन गुजारते रहने में ही भलाई है।

पिछले स्वतंत्रता-संग्राम में जो साहसपूर्वक सम्मिलित हुए, उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के नाम से सम्मानित किया गया। पेंशन मिली। मुफ्त के रेलवे पास मिले। उनके संबंधी भी उस प्रसंग की समय पर चर्चा करने में गर्व अनुभव करते हैं। इन्हीं सेनानियों में से अनेक मिनिस्टर स्तर के पदों पर आसीन हैं; पर जिनने उन दिनों कृपणता दिखाई, वे अब पछताते हैं कि अमूल्य अवसर को उपेक्षा में गँवा क्यों दिया? पछताने पर भी वह अवसर थोड़े समय के लिए आया था, अब फिर लौटने वाला नहीं है।

शंकराचार्य, बुद्ध, गाँधी आदि ने साधारण लोगों की तरह उदरपूर्ति तक सीमित रहने वाली नीति अपनाई होती, तो उनमें ऐसी कोई क्या विशेषता मिल पाती? जिनके लिए इतिहास उनका स्तवन करते हुए अभी भी थकता नहीं है। अन्य महामानवों के संबंध में भी यही कहा जा सकता है कि उनने समय की आवश्यकता को समझा और क्षुद्रता के आकर्षणों से विरत हो सकने का साहस न दिखाया होता, तो सामान्य से असामान्य बनने का श्रेय, गौरव उन्हें कहाँ मिल पाता?

युग-परिवर्तनकाल के इस प्रभात-पर्व ने हर किसी जाग्रत आत्मा के लिए निमंत्रण भेजा है कि वे नर वानर की तरह न जिएँ। संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए ही अपनी क्षमता और दक्षता को नियोजित न किए रहें, वरन साहसपूर्वक उस प्रयोजन में भागीदारी सम्मिलित करें, जो इसी संसार को स्वर्गोपम बनाने के लिए युगचेतना के रूप में इन दिनों पूरे वेग के साथ चल रही है।

स्रष्टा की योजना, समय की माँग और औचित्य के परिपोषण का महत्त्व समझते हुए सुग्रीव, विभीषण, नल-नील, जामवंत जैसों ने अपनी क्षमता का श्रेष्ठतम उपयोग युगधर्म के निर्वाह में ही लगाया। कनिष्ठ रीछ-वानरों तक को अपनी अशक्ति के कारण संकोच करने में मन विचलित न हुआ। केवट, शबरी, गिलहरी जैसे स्वल्प सामर्थ्य वालों ने भी उचित समय पर अपनी श्रद्धा और साहसिकता का परिचय देने में आना-कानी नहीं कीं, जोखिम को जानबूझकर वरण किया। मोटी दृष्टि से प्रतीत होता था कि वह घाटे में रहेंगे और खतरा उठाएँगे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं, वरन क्षुद्रता की समझ से सर्वथा विपरीत ऐसा श्रेय पाने का सुयोग बना, जिसके लिए लालायित रहने वालों में से भी कम ही सफल हो पाते हैं।

महान परिवर्तन के साथ जुड़े हुए युगधर्म को समझा जाए। महाकाल के आमंत्रण को अपने सौभाग्य का चिह्न मानकर स्वीकार किया जा सके, तो हम स्वयं अग्रगामियों को मिलने वाले श्रेय का लाभ उठा सकते हैं और दूसरों के लिए अनुकरण कर सकने योग्य साहस भरे चिह्न छोड़ सकते हैं।


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