अनौचित्य को उलटने को तत्पर दैवी चेतना

February 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विराट विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त दिव्य चेतनसत्ता को विराट ब्रह्म कहते हैं। वही सर्वव्यापी न्यायकर्त्ता, सत्-चित-आनंद आदि विशेषताओं से जाना जाता है। मनुष्यसहित समस्त जीवधारियों में उसी का एक छोटा-सा अंश काम करता है, इतने पर भी मानव में इसका स्तर ऊँचा भी है और अधिक भी। असंतुलन को संतुलन में, ध्वंस को सृजन में परिवर्तित कर सकने में मानवी पुरुषार्थ एक सीमा तक ही सफल हो पाता है। परिस्थितियाँ बेकाबू हो जाने पर जब समूची मानव सभ्यता का दम घुटने लगता है, सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच जाती है, विनाशकारी विभीषिकाएँ ही घटाटोप-सी छाई दीखती हैं, ऐसे निविड़ अंधकार में अतिरिक्त से कहीं बिजली-सी कौंधती और समस्त बिगाड़ को सँभाल लेती है। दैवी सत्ता मनुष्य को मार्गदर्शन एवं अपेक्षित सहायता प्रदान करने को सदैव तत्पर रहती है।

इस संदर्भ में अमेरिका के सुप्रसिद्ध दार्शनिक कोर्लिस लेमोन्ट ने अपनी कृति “द इल्यूजन ऑफ इम्मौर्टलिटी” में ‘कैन गॉड सेव द सिचुएशन’ नामक शीर्षक से विस्तारपूर्वक लिखा है। उनका कहना है कि मनुष्य सृष्टि में असंतुलन पैदा कर सकता है और बीसवीं शताब्दी में उसने किया भी है; पर उसके सुधार की बात अब उसे सूझ रही हो, ऐसी आशा बँधती दिखती नहीं। पिछले दिनों अणु-आयुधों के निर्माण से लेकर वातावरण बिगाड़ने तक, प्रकृति को रुष्ट करने से लेकर स्वयं चिंतन-चेतना में, क्रियाकलापों में विकृतियों की भरमार का कार्य तो उसने पूरे कर लिए, परंतु प्रतिफल जब अकालमृत्यु के रूप में सामने आया तो, किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो अदृश्य सत्ता की ओर ताकने लगा है। उनके अनुसार प्रस्तुत समय की विषम परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में मात्र परमात्म सत्ता ही सहायक सिद्ध हो सकती है। मनुष्य की शक्ति, क्षमता और प्रतिभा एक सीमित दायरे में थोड़ा-बहुत अपना चमत्कार प्रस्तुत कर सकती है, किंतु विस्तृत भूमंडल की परिस्थितियों का नियंत्रण करना तो दूर, उनकी सूक्ष्मता को समझना भी मुश्किल है। फिर समूचे ब्रह्मांड की स्थिति को समझना तो उसकी शक्ति से सर्वथा परे है।

ब्रिटेन के विख्यात खगोल भौतिकी विशेषज्ञ सर जेम्स जीन्स ने अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्ड अराउन्ड अस’ में इसी तरह के उद्गार प्रकट करते हुए कहा है कि “संकट की जिन घड़ियों से हम गुजर रहे हैं, उसमें सुधार-परिवर्तन कर सकना मात्र अदृश्य सत्ता के द्वारा ही संभव है। हममें से हर कोई जब अपनी, अपने परिवार-परिकर की समस्याओं को समझने, सँभालने में विफल रह रहा हो, तो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने वाले पृथ्वी सहित अगणित ग्रहगोलकों को नियंत्रित कर सकना तो दूर, उनकी पूर्ण जानकारी भी नहीं रख सकता। मनुष्य की शक्ति-सामर्थ्य इसका अनुमान नहीं लगा सकती। संसार की भली-बुरी परिस्थितियों को जान सकना, उनमें सुधार, परिवर्तन कर सकने की क्षमता उसी अदृश्य समर्थसत्ता में है, जिसे ‘डिवाइन माइंड' के नाम से पुकारा गया है। अब हमें उसी का आश्रय लेना होगा और तदनुरूप प्रयत्नशील होने के लिए अपनी मानसिक चेतना को अत्यधिक पवित्र, प्रखर एवं परिष्कृत बनाना होगा। आसन्न संकटों को तभी टाला और सुख-शांति का वातावरण विनिर्मित किया जा सकता है।”

अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. रॉबर्ट एच. स्कूलर का कथन है कि संसार की बढ़ती हुई समस्याओं और विभीषिकाओं के दुष्परिणामों को देखकर, आज का अधिसंख्य बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक समुदाय ईश्वरीय सत्ता की महत्ता और जीवन में उसकी भागीदारी की अनिवार्यता में गंभीरतापूर्वक आस्था प्रकट करने लगा है। अब यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि दैवी सहायता के बिना, न तो बिगाड़ को सुधारा जाना संभव है और न मानवी सभ्यता को संरक्षित रखा जाना ही। ईश्वर की स्वसंचालित प्रक्रिया ही समस्त विग्रहों को समाप्त करने में समर्थ है, उनके अनुसार सूक्ष्मजगत में ऐसा वातावरण विनिर्मित हो चुका है, जिससे सुखद संभावनाओं की सुनिश्चितता पर विश्वास किया जा सकता है। डॉ. स्कूलर की दैवी सत्ता पर प्रगाढ़ आस्था है और उनने कास्मिक पॉवर के अनुशासन के अनुरूप आचरण करने के लिए एक सघन जन-अभियान भी चला रखा है। 'ऑवर ऑफ पॉवर' नामक सुनिश्चित कार्यक्रम के द्वारा लोगों को प्रार्थना और ध्यान जैसे ईश्वर उपासनात्मक अभ्यासों के द्वारा जीवनशैली को नया रूप प्रदान करने, धार्मिक वातावरण बनाने में वे उत्साहपूर्वक लगे हैं। उनका कहना है कि आसन्न संकटों का निवारण तो दैवी चेतना के द्वारा ही संपन्न होगा, परंतु माध्यम तो मनुष्य ही रहेगा। उसकी सूक्ष्मप्रेरणाएँ वही ग्रहण कर सकते हैं, जिनकी आत्मचेतना जाग्रत एवं परिष्कृत स्तर की होंगी।

ईसाइयों के धर्मग्रंथ बाइबिल के मैथ्यू 21-22 प्रकरण में कहा गया है कि दैवी सत्ता में आस्था रखने से जीवन के समस्त विग्रहों का समापन होता और स्नेह-सद्भाव का, सुख-शांति का वातावरण विनिर्मित होता है। धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण तभी संभव होता है। इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए इंग्लैण्ड के ख्यातिलब्ध दार्शनिक एवं गुह्यविज्ञानी डॉ. पाल ब्रण्टन ने अपनी पुस्तक “द स्प्रिचुअल क्राइसिस ऑफ मैन” में कहा है कि विगत कुछ वर्षों से विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिकों का ध्यान ‘एन्थ्रोपोमार्फिक गॉड’ की ओर केंद्रित होता जा रहा है, जिसकी अदृश्य शक्ति अनंत एवं सर्वसमर्थ है। संसार के समस्त मनुष्यों की सम्मिलित शक्ति भी उसके समक्ष नगण्य है। उनने इसे ‘डिवाइन पॉवर’ नाम से संबोधित किया है तथा विश्व-व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप से नियंत्रित एवं संचालित करने वाली उसकी विधिक व्यवस्था को ‘डिवाइन लॉ’ की संज्ञा दी है।

मनुष्य जब सब ओर से अपनी असमर्थता प्रकट करने लगता है, परिस्थितियाँ उसके सामर्थ्य से बाहर हो जाती हैं तब दिव्य चेतना अपने दिव्य कानून के अनुसार विनाश के गर्त में लुढ़कती जा रही मानव सभ्यता को उबारती, उसका मार्गदर्शन करती है। वस्तुतः हमारी आंतरिक पुकार जितनी अधिक तीव्र होगी, परम चेतना का उदार, अनुदान भी शीघ्र बरसने लगेगा।

‘यदा-यदा हि धर्मस्य’ वाले गीताकार के कथन का समर्थन करते हुए, एल्गरमैन ब्लैकवुड ने अपनी पुस्तक “द ब्राइट मैसेंजर” में स्पष्ट किया है कि परम सत्ता को अनौचित्य का निराकरण और औचित्य का अभिवर्द्धन ही अभीष्ट है। मानव समाज में दुष्प्रवृत्तियाँ जब अपनी चरम सीमा का उल्लंघन कर जाती हैं तब उनके निवारणार्थ दैवी चेतना का मानव स्वरूप में अवतरण होता है और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन की पुण्य-प्रक्रिया को विकसित, विस्तारित करने में वह सफल होती है। अब वही समय फिर से आ गया है, जिसमें स्रष्टा अपनी श्रेष्ठतम कृति धरित्री और उस पर निवास करने वाले मानव समुदाय को विनष्ट होने से बचाने के लिए कृत संकल्प है।

अवतार चेतना जब कभी इस धरती पर आती है तो प्रचंड तूफानी प्रवाह के रूप में वह जन-जन के मन-मस्तिष्क को झकझोरती और सन्मार्ग अपनाने तथा अनौचित्य को त्यागने के लिए बाध्य कर देती है। दिव्य चेतना किस प्रकार सृष्टि के असंतुलन को नियंत्रित करती संतुलन बिठाती है, इस व्याख्या-विवेचना से भूतकालीन इतिहास के पन्ने पटे पड़े हैं। सतयुग से लेकर आधुनिक युग तक राम, कृष्ण से लेकर बुद्ध एवं ईसा तक के पौराणिक आख्यान इसके साक्षी हैं। शंकराचार्य, रामकृष्ण, अरविंद, महर्षि रमण, विवेकानंद एवं गाँधी जैसे महामानवों की कथा-गाथाएँ बताती हैं कि वे अवतार चेतना से अनुप्राणित थे और उनके माध्यम से वह चेतना विश्व के नवनिर्माण की प्रक्रिया में संलग्न रही। वही परम सत्ता यदि फिर से मानवी चिंतन चेतना को पतनोन्मुख एवं विध्वंसक गतिविधियों से विमुखकर विधेयात्मक एवं रचनात्मक दिशा में मोड़-मरोड़कर रख दे और नवसृजन की सुखद प्रक्रिया चल पड़े तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118