मनुष्य के दिल में छिपकर बैठ जाइए (कहानी)

February 1990

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परमात्मा ने चींटी से लेकर हाथी तक की सृष्टि-रचना कर डाली। तब तक सृष्टि में न कोई उत्पात मचा, न झंझट खड़ा हुआ। न ईश्वर से कोई माँगता, न कोई शिकायतें करता; किंतु जब वह मनुष्य की रचना कर चुका तो परमात्मा उस दिन से बड़ा परेशान, बड़ा हैरान रहने लगा। नित नए उपद्रव दंगे-फसाद, शिकायत, फरियादों का ताँता लग गया। सब काम रोककर शिकायतें निपटाते ही दिन बीतता।

एक दिन परमात्मा ने देवताओं की बैठक बुलाई और कहा कि हमसे जीवन में पहली बार इतनी बड़ी भूल हुई है, जितनी कभी नहीं हुई थी। अनेकों जीवों की रचना की, तब तक हम बड़े चैन से थे; किंतु जब से मनुष्य की रचना की है, पूरी मुसीबत खड़ी हो गई। नित्य ही दरवाजे पर माँगने वालों और फरियाद करने वालों की भीड़ जमा रहने लगी है। अब कोई उपाय भी नहीं सूझता कि क्या किया जाए? कोई ऐसी जगह बताओ जहाँ मैं छिपकर बैठ जाऊँ।

एक देवता ने सुझाव दिया— "भगवान! क्षीर सागर में छिपना ठीक रहेगा।" भगवान बोले— "वहाँ तो मनुष्य मुझे आसानी से ढूँढ़ लेगा।" दूसरे ने कहा— "हिमालय पर्वत ठीक रहेगा।" तीसरे ने कहा— "चंद्रमा में छिप जाए; प्रभु!" भगवान ने कहा— "इसकी अकल इतनी पैनी है कि आकाश-पाताल में कहीं भी पहुँच सकता है।" तब देवर्षि नारद आगे आए और बोले— "भगवन्! बहुत गोपनीय स्थान समझ में आया है; किंतु कानोंकान किसी को खबर न होने दें।" और उनने भगवान के कान में कहा— “प्रभु! मनुष्य के दिल में छिपकर बैठ जाइए। इसकी आँखें बाहर देखती हैं। वह चारों ओर खोजता फिरेगा अपने अंदर वह आपको कभी खोजेगा ही नहीं।” कहते हैं, जब से भगवान मनुष्य के हृदय में छिपकर बैठे हैं, जो इस रहस्य को जानता है, वहीं उन्हें खोज पाता है।


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