भटकाव से उबरने का सही मार्ग

February 1990

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भगवान ने अपने बाद चेतना का दूसरा स्तर मनुष्य को ही बनाया है। उसकी ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय इतनी समर्थ हैं कि उसे देखते हुए सृष्टि का सर्वसमर्थ प्राणी कहा जाना उचित ही है। यह उसके काय-कलेवर की विशेषता है। सचेतन अदृश्य सत्ता की अतींद्रिय क्षमताओं का यदि लेखा-जोखा लिया जाए तो प्रतीत होगा कि न केवल भौतिक जगत पर; वरन अदृश्य क्षेत्र के रूप में जाने जाने वाले सूक्ष्मजगत पर भी उसका वर्चस्व स्थापित है। दृश्य और अदृश्य दोनों ही लोकों पर उसका अधिकार होने से मानवी सत्ता को सुरदुर्लभ भी कहा गया है। किसी ने सच ही कहा है— “मनुष्य भटका हुआ देवता है।” उसका अंतराल समुन्नत देवलोक है, जिसमें दैवी शक्तियों का तत्त्वतः समग्र निवास है, पर दृश्य जगत के झाड़-झंखाड़ में, जाल-जंजाल में अपनी चौकड़ी भूल जाने के कारण ठोकरें खाता, काँटों की चुभन सहता जहाँ-तहाँ भटकता है। हँसने के स्थान पर रुदन का अभिनय करता दीख पड़ता है।

गड़बड़ी वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर अपने को कलेवर मात्र समझता है। वाहन को अधिपति मान बैठता है और गोबर भरी मशक में अपने को समाया भर मानता है। दर्पण में छवि तो अपनी ही दीखती है, पर उसे समझा प्रतिबिंबमात्र ही जाना चाहिए। होता तो कोई छाया पुरुष भी है। वह असली मनुष्य का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता। गुंबज में आवाज तो अपनी ही गूँजती है, पर उसे वक्ता का कथन प्रतिपादन कहना भूल है। शरीर कुछ तो है, पर सब कुछ नहीं। उसकी इच्छा, आवश्यकता को भी पूरा किया जाना चाहिए, पर मात्र उसी के लिए सब कुछ निछावर कर देना भूल है। अच्छा होता सवार और घोड़े का संबंध भी समझ लिया गया होता। आदमी घोड़े पर सवारी करे, यह तो समझ में आता है; पर उस स्थिति को क्या कहा जाए, जिसमें घोड़ा सवार की पीठ पर लद ले और उससे वह कौतुक कराने लगे, जो देखने या सुनने वाले तक को अजीब मालूम पड़ता है। इतने पर भर की वास्तविकता यही है। भेड़ों के झुंडों में पले सिंह ने अपने को भेड़ मान लिया था। यह कथा सुनी तो बहुतों ने है, पर यह अनुभव कोई बिरला ही करता है कि यह उपहासास्पद कथा, उक्ति सीधी अपने ही ऊपर लागू होती है।

परमाणु मोटी दृष्टि से धूलि का एक अत्यंत ही छोटा, अदृश्य स्तर का, प्रकृति का अत्यंत सूक्ष्मघटक मात्र मालूम पड़ता है। इतने पर भी वस्तुस्थिति यह है कि उसमें एक समूचे ग्रहपिंड जितनी शक्ति भरी पड़ी है। अणु विस्फोट के समय उसकी अधिकांश शक्ति आकाश में बिखर जाती है। जो अनुभव में आती है, प्रभाव दिखाती है। वह समूची विस्फोटजन्य शक्ति का लाखवाँ भाग भर होता है। यदि एक कण की समूची शक्ति को बिखरने से रोककर उसे केंद्रीभूत कर लिया जाए, तो उतने भर से समूचे धरातल पर खर्च होने वाली ऊर्जा, जितनी विद्युत का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य असंख्य परमाणुओं, जीवाणुओं, रसायनों, विद्युत आवेगों का भंडार है। इस प्रायः साढ़े पाँच फुट ऊँचे 60 किलोग्राम भारी औसत के काय-कलेवर में संभवतः उतने ही गोलक हो सकते हैं, जितने कि इस समूचे ब्रह्मांड में ग्रहतारक एवं निहारिका, मेघमंडल बिखरे हुए हैं। इस समूची शक्ति का अनुमान लगाया और आकलन किया जाए, तो एक औसत मनुष्य प्रायः उतना ही हो सकता है, जितना कि यह समूचा ब्रह्मांड प्रकृति-संपदा से भरा पड़ा है।

ब्रह्मांड को “महतो महीयान्” कहा गया है और पिंड को 'अणोरणीयान्’। यदि आकार की न्यूनाधिकता पर ध्यान न दिया जाए, तो मानवी सत्ता भी परमात्म सत्ता के समतुल्य जा पहुँचती है। भगवान को जितने भी प्रमुख अवतार लेने पड़े हैं, वे सभी मनुष्य आकृति में ही अवतरित हुए हैं। स्वर्गोपम देवता अपनी जगह विराजमान हो सकते हैं, पर धरती के देवताओं की भी कमी नहीं रही। महामानवों के रूप में अपने अस्तित्व का परिचय समय-समय पर मिलता रहा। वे देवस्वरूप में सृजन और दैत्य के रूप में ध्वंस के ऐसे अनेक कृत्य दिखाते रहे हैं, जिसकी विशालता और विध्वंसकता ध्यान देते ही दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। क्षुद्रता का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्हें इसी कारण देखा जाता है कि अपनी शक्ति का उपयोग करना तो दूर, आकलन करते तक नहीं बन पड़ता। यदि मनुष्य “आत्मबोध” प्राप्त कर ले और समझ ले कि मैं कौन हूँ? क्या हूँ? और क्या कर सकता हूँ? तो समझना चाहिए कि उसे क्षुद्रता से उबरने का मार्ग मिल गया।

यह संसार जड़ पदार्थों वाला है। उसमें भले-बुरे जैसा कहीं कुछ नहीं है। जड़ पदार्थों का अपना स्वरूप भर है। उनमें सुख और दुःख की अनुभूति तो मनुष्य की खुद की गढ़ी हुई है। पाप, पुण्य पदार्थ तो कैसे करेंगे? उनका सदुपयोग-दुरुपयोग ही स्वेच्छापूर्वक अनुभूतियाँ या परिस्थितियाँ गढ़ता रहा है। इंजन कितना ही समर्थ या कीमती क्यों न हो, उसे चलाने की क्षमता तो सजीव मनुष्य में ही होती है। रेलगाड़ी अपने बलबूते किसी निर्दिष्ट लक्ष्य पर नहीं पहुँच सकती। अधिक से अधिक कोई दुर्घटना करने का निमित्त भर बन सकती है। संसार का वातावरण पदार्थों से विनिर्मित होने के कारण अपने बलबूते कुछ भला-बुरा नहीं कर सकता। सचेतन सत्ता का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करने वाला मनुष्य ही हर परिस्थिति के लिए पूरी तरह उत्तरदाई है।

तथ्यों को समझते हुए, हमें जैसा भी कुछ भला-बुरा भविष्य विनिर्मित करना हो, उसी के अनुरूप जनमानस विनिर्मित करना चाहिए। सतयुग और कलियुग में लोगों के शरीर निर्वाह एवं पदार्थ-परिकर में कोई बड़ा अंतर नहीं होता था, फिर भी जो जमीन-आसमान जैसा, स्वर्ग-नरक जैसा अंतर दीख पड़ता है, उसका सृजनकर्त्ता मनुष्य के अतिरिक्त भी कोई हो ही नहीं सकता। वह न केवल अपने भाग्य का निर्माता आप है, वरन उसी का सामूहिक चिंतन, क्रियाकलाप-प्रवाह वैसा ही कुछ बनाकर खड़ा कर देता है, जैसा कि सोचा या कहा गया था। हमें मुरझाए पत्ते सींचने की योजना नहीं बनानी चाहिए; वरन जड़ तक खाद-पानी पहुँचाने का प्रयत्न करना चाहिए।

पूछा जाता है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए क्या करना होगा? यदि प्रश्न का सही उतर अपेक्षित हो तो वह एक ही हो सकता कि 'दृष्टिकोण का परिवर्तन', जिसके आधार पर गतिविधियाँ बनती-बिगड़ती और बदलती हैं। परिस्थितियों के आधार पर ही उत्थान-पतन का अनुमान लगाया जाता है। वे स्वयं न तो प्रतिकूल हो सकती हैं और न अनुकूल। मनुष्य ही उन्हें इच्छानुसार घोड़े की लगाम की तरह मोड़ता-घुमाता रहता है। वह उन्हें दौड़ा भी सकता है और खड़ा रहने के लिए भी बाधित कर सकता है।

मोटी बुद्धि दृश्यों, पदार्थों, घटनाओं को ही सब कुछ मानती है। चिंतन, दृष्टिकोण, उत्साह, साहस जैसी अदृश्य प्रवृत्तियों के संबंध में हर किसी के लिए यह अनुमान लगाना कठिन होता है कि पर्दे के पीछे काम करने वाली मदारी की उँगलियाँ ही समूचे प्रह्सन की निमित्तमात्र है। तमाशे का सूत्रधार तो मानसिकता का बाजीगर ही होता है। समस्याओं का वास्तविक हल उसी के हाथ है। बंदी-कठपुतलियों के साथ माथा-पच्ची करना कुछ अर्थ नहीं रखता, फिर भी बच्चे को चाभी के खिलौनों की हलचलें ही प्रभावित करती हैं। उन्हें यह कहाँ पता होता है कि खोखले के भीतर जमे हुए पुर्जे ही यह चित्र-विचित्र हलचल करते हैं। यदि यह मतिभ्रम निकल जाए, वस्तुस्थिति का आभास होने लगे तो समझना चाहिए कि प्रगति का पथ-प्रशस्त हो गया।


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