स्नायु रोग के तेज आघात से उनके दोनों हाथ खराब हो गए। जिसने सुना, वही पीड़ा से कराह उठा। हरेक के मुँह से निकल पड़ा— "अरे! अब क्या होगा? जो हमेशा दूसरों की सेवा के लिए तत्पर रहा करता हो, उसे अब स्वयं के भोजन के लिए दूसरों का सहारा तकना पड़ेगा।" मित्रों ने पूछा— “अब क्या होगा आपकी सेवा का?" “क्यों? वह तो चलती रहेगी”— उनका जबाब था।
“कैसे?" सुनने वाले आश्चर्यचकित थे।
“अरे भाई! हाथ ही तो खराब और बेकार हुए हैं। अभी मेरे पास भावनाओं से लबालब हृदय सक्रिय-सतेज मस्तिष्क और सुदृढ़ पैर हैं।"
"भला इनसे कैसे करोगे सेवा!" "ओह! शायद आप नहीं जानते, आज मनुष्य को दूसरों की शारीरिक सहायता की उतनी जरूरत नहीं पड़ती, जितनी मानसिक सहायता की। शारीरिक सेवा तो सिर्फ बीमारों को चाहिए। ऐसे कितने हैं? बहुत थोड़े। अधिकांश जनसंख्या, जो शरीर से स्वस्थ रहते हुए मानसिक रूप से बेतरह परेशान है। उसकी सहायता तो विचारों से ही हो सकना संभव है।"
सुनने वालों को उनकी बात कितनी समझ में आई, पता नहीं; पर उनकी पदयात्रा शुरू हो गई। घर-घर, दरवाजे-दरवाजे पहुँचने लगे। हरेक से मिलते, बड़े प्रेम से उसके घर का हाल-चाल पूछते, उनकी हैरानी-परेशानी मालूम करते और उपयुक्त समाधान सुझाते।
कभी-कभी उनके इस तरह पूछने पर लोगों को अत्यधिक विस्मय होता, जिसके स्वयं हाथ नहीं है वह हमारी तकलीफें पूछ रहा है। कभी-कदार इसे प्रकट भी कर देते। सुनकर वह कहते— “मेरे तो हाथ रोग से बरबाद हो गए; पर ऐसे न जाने कितने हैं जो सब कुछ सही सलामत रहते हुए भटक रहे हैं, उन्हें राह नहीं सूझ रही, क्या करें? कैसे करें? मेरा काम उन्हीं भटकों को राह दिखाना है। उन्हें जीवन का मर्म सुझाना है। यह बात उनके गले उतारनी है कि अभावों का रोना मत रो, अभी भी तुम्हारे पास ऐसा कुछ है, जिसका उपयोगकर स्वयं निहाल हो सकते हो, औरों को निहाल कर सकते हो।”
कर्नाटक के मेलुकीटे नामक स्थान में जन्मे, इस अलौकिक लोकसेवी ने अपने समूचे प्रांत की तीन बार पदयात्रा की। लोग उन्हें संत-समर्थ मानने लगे। उनके बारे में यह बात फैल गई कि वह तमाम तरह की समस्याओं को हँसते-मुस्कराते सुलझा देते हैं। किसी ने पूछा— "कौन से तप द्वारा आपको यह शक्ति मिली?" "सत्साहित्य के अध्ययन से।" "यही मेरा वह तप है, जिसके द्वारा स्वयं शक्ति पाता और औरों को बाँटता हूँ।"
उनकी ख्याति को सुनकर तमिलनाडु निवासियों ने अपने यहाँ आने का आग्रह किया। 'सारा भारत मेरा घर' नीति के मानने वाले, वे वहाँ भी पहुँच गए। थोड़े ही प्रयास से तमिल भाषा सीखकर तमिलनाडु से अपनी पदयात्रा शुरू कर दी।
उनका समूचा जीवन मुखर होकर प्रेरणा देने लगा। वाणी के द्वारा इसे वह मर्मस्पर्शी व सौ गुना अधिक प्रभावशाली बनाने लगे। एक बार तंजौवूर जिले के एक गाँव में सभा हो रही थी। उन्होंने कहा— "यदि हम सब एकदूसरे के दुःख-दर्द में हिस्सा बँटाना सीख जाएँ तो परेशानियों का हौआ खुद ही गायब हो जाए।" गाँव में विद्यालय की समस्या थी। इसके निदान के लिए धन इकट्ठा करने की बात आई। सभा में स्तब्धता छा गई। थोड़ी देर बाद एक अंधा भिखारी तानपूरे को ठीक करते उठा। मंच के पास आया और गाँठ खोलकर पैसे गिनने लगा। कुल एक रुपये के पैसे उसके पास निकले। सबके सब उसने दान में दे दिए। कई दिन की बची हुई कमाई का सारा भाग समर्पित करने वाले भिखारी को देखकर औरों की थैलियाँ खुली, समस्या सुलझ गई।
चलते-फिरते समस्याओं का निदान प्रस्तुत करने वाले इस व्यक्ति से विनोबा जी अपनी भूदान यात्रा के समय मिले। नाटे कद के दोनों हाथों से रहित इस व्यक्ति को देखकर उन्होंने कहा— "वह वामन नहीं, विराट हैं जिन्होंने अपने पैरों पूरे दो प्रांतों को नाप लिया।" विनोबा ने उन्हें चलते-फिरते विश्वविद्यालय का नाम दिया, जो हरेक का दरवाजा खटखटाकर उन्हें जीवन विद्या की सीख देता है। सीख देने वाले ये व्यक्ति थे— पेनुगोडे, जो अपने नाटे कद के कारण जन-जन में कुट्टी जी के नाम से विख्यात हुए। सचमुच वे चलते-फिरते विश्वविद्यालय थे।