भाव-संवेदना ही एकमात्र विकल्प

February 1990

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काँच को हथौड़े से तोड़ा जाए तो वह छर-छर होकर बिखर तो सकता है; पर सही जगह से इच्छित स्तर के टुकड़ों में विभाजित न हो सकेगा। चट्टानों में छेद करना हो, तो सिर्फ हीरे की नोक वाला बरमा ही काम आता है। पहाड़ में सुरंगें निकालने के लिए डायनामाइट की जरूरत पड़ती है। कुदालों से खोदते-तोड़ते रहने पर तो सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।

वर्त्तमान में संव्याप्त असंख्यों अवांछनीयताओं से जूझने में प्रचलित उपाय पर्याप्त नहीं हैं। दरिद्रता को सभी संकटों की एकमात्र जड़ बताने से तो बात नहीं बनती। समाधान तो तब हो, जब सर्वसाधारण को मनचाही संपदाओं से सराबोर कर देने का कोई सीधा मार्ग बन सके। यह तो संभव नहीं दिखता। इसी प्रकार यह भी दुष्कर प्रतीत होता है कि उच्च शिक्षित, चतुर कहलाने वाला व्यक्ति अपनी विशिष्टताओं का दुरुपयोग न करेगा और उपार्जित योग्यता का लाभ सर्वसाधारण तक पहुँचा सकेगा। प्रपंचों से भरीपूरी गतिविधियाँ अपनाकर जनसाधारण के लिए अनेको कठिनाइयाँ खड़ी न करेगा। संपदा के द्वारा मिलने वाली सुविधाओं से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यह विश्वास कर सकना कठिन है कि जो पाया गया, उसका सदुपयोग ही बन पड़ेगा। उसके कारण दुर्व्यसनों का, आतंकवादी अनाचार का जमघट तो नहीं लग जाएगा?

वर्त्तमान कठिनाइयों के निराकरण हेतु आमतौर से संपदा, सत्ता और प्रतिभा के सहारे ही निराकरण की आशा की जाती है, इन्हीं तीनों का मुँह जोहा जाता है। इतने पर भी इनके द्वारा जो पिछले दिनों बन पड़ा है, उसका लेखा-जोखा लेने पर निराशा ही हाथ लगती है। प्रतीत होता है कि जब भी, जहाँ भी वे अतिरिक्त मात्रा में संचित होती हैं, वहीं एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न कर देती हैं। उस अधपगलाई मनोदशा के लोग सुविधा-संवर्द्धन के नाम पर उद्धत आचरण करने पर उतारू हो जाते हैं और मनमानी करने लगते हैं। अपने-अपनों के लाभ के लिए उनकी उपलब्धियाँ खपती रहती हैं। प्रदर्शन के रूप में ही यदा-कदा उनका उपयोग ऐसे कार्यों में लग पाता है, जिससे सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन में कदाचित कुछ योगदान मिल सके।

सच तो यह है कि समर्थता का जखीरा हाथ लगने पर तथाकथित बलिष्ठों ने घटाटोप की तरह छाए हुए संकट और विग्रह खड़े किए हैं। प्रदूषण उगलने वाले कारखाने संपन्न लोगों ने ही लगाए हैं। उन्हीं ने बेरोजगारी और बेकारी का अनुपात बढ़ाया है। आतंक, आक्रमण और अनाचार में संलग्न बलिष्ठ लोग ही होते हैं। युद्धोन्माद उत्पन्न करना खर्चीले माध्यमों के सहारे उन्हीं के द्वारा बन पड़ता है। प्रतिभा के धनी कहे जाने वाले वैज्ञानिकों ने ही मृत्यु-किरणों जैसे आविष्कार किए हैं। कामुकता को धरती से आसमान तक उछाल देने में तथाकथित कलाकारों की ही संरचनाएँ काम करती हैं। अनास्थाओं को जन्म देने का श्रेय, बुद्धिवादी कहे जाने वालों के ही पल्ले बंधा है। नशेबाजी को घर-घर तक पहुँचाने में चतुरता के धनी लोग ही अपने स्वेच्छाचार का परिचय दे रहे हैं। इस प्रकार आकलन करने पर प्रतीत होता है कि मूर्धन्यों, बलिष्ठों, संपन्न और प्रतिभाशालियों की छोटी-सी चौकड़ी ने अनर्थ थोड़े समय में खड़े किए हैं।

यहाँ साधनसंपन्नता की निंदा नहीं की जा रही है और न दुर्बलता के सिर पर शालीनता का सेहरा बाँधा जा रहा है। कहा इतना भर जा रहा है कि पिछड़ेपन को हटाने-मिटाने का एकमात्र यही उपाय नहीं है।

इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है, इसलिए यदि परिस्थितियों की विपन्नता को सचमुच ही सुधारना हो, तो जनसमुदाय की मनःस्थिति में दूरदर्शी विवेकशीलता को उगाया, उभारा और गहराई तक समाविष्ट किया जाए। यहाँ यह बात भी ध्यान रखने की है कि मनःक्षेत्र एवं बुद्धि संस्थान भी स्वतंत्र नहीं हैं, उन्हें भावनाओं, आकांक्षाओं, मान्यताओं के आधार पर अपनी दिशाधारा विनिर्मित करनी होती है। उनका आदर्शवादी उत्कृष्ट स्वरूप अंतःकरण में भाव-संवेदना बनकर रहता है। यही है वह सूत्र, जिसके परिष्कृत होने पर कोई व्यक्ति ऋषिकल्प, देवमानव बन सकता है। यह एक ही तत्त्व इतना समर्थ है कि अन्यान्य असमर्थताएँ बने रहने पर भी मात्र अकेली विभूति के सहारे न केवल अपना, वरन समूचे संसार की शालीनता का पक्षधर कायाकल्प किया जा सकता है। इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़े उज्ज्वल भविष्य का यदि कोई सुनिश्चित आधार है, तो वह एक ही है कि जन-जन की भाव-संवेदनाओं को उत्कृष्ट, आदर्श, उदत्त बनाया जाए। इस सदाशयता की अभिवृद्धि इस स्तर तक होनी चाहिए कि सब अपने और अपने को सबका मानने की आस्था उभरती और परिपक्व होती रहे।

संपदा संसार में इस अनुपात में ही विनिर्मित हुई है कि उसे मिल-बाँटकर खाने की नीति अपनाकर सभी औसत नागरिक स्तर का जीवन जी सके। साथ ही बढ़े हुए पुरुषार्थ के आधार पर जो कुछ अतिरिक्त अर्जन कर सकें, उसे पिछड़े हुओं को बढ़ाने, गिरते हुओं को उठाने एवं समुन्नतों को सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन हेतु प्रोत्साहित कर सकें।

अनावश्यक संपन्नता की ललक ही बेकाबू होने पर उन अनर्थकारी संरचनाओं में प्रवृत्त होती है, जिनके कारण अनेकानेक रंग-रूप वाले अनाचारों को व्यापक, विस्तृत और प्रचंड होते हुए देखा जा रहा है। लिप्साओं में किसी प्रकार कटौती करते बन पड़े तो ही वह जुझारूपन उभर सकता है, जो अवांछनीयताओं से गुँथे और पटकनी देकर परास्त कर सके। जिन अभावों से लोग संत्रस्त दीखते हैं, उनसे निपटने की प्रतिभा उनमें उभारी जाए, ताकि वे अपने पैरों खड़े होकर, दौड़कर स्पर्धा जीतते देखे जा सकें। आर्थिक अनुदान देने की मनाही नहीं है और न यह कहा जा रहा है कि गिरों को उठाने में सहयोग देने में कोताही बरती जानी चाहिए। मात्र इतना भर सुझाया जा रहा है कि मनुष्य अपने आप में समग्र और समर्थ है। यदि उसका आत्मविश्वास एवं पुरुषार्थ जगाया जा सके, तो इतना कुछ बन सकता है, जिसके रहते याचना का तो प्रश्न ही नहीं उठता, इतना बचा रहता है जिसे अभावों और अव्यवस्थाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में लगाया जा सके।

इक्कीसवीं सदी भाव-संवेदनाओं के उभरने-उभारने की अवधि है। हमें इस उपेक्षित क्षेत्र को ही हरा-भरा बनाने में निष्ठावान माली की भूमिका निभानी चाहिए। यह विश्व-उद्यान इसी आधार पर हरा-भरा, फला-फूला एवं सुषमासंपन्न बना सकेगा। आश्चर्य नहीं कि वह स्वर्गलोक वाले नंदनवन की समता कर सके।


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