आदर्श का शुभारंभ स्वयं से

February 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

लाहौर के एक मकान के कमरे में एक नवयुवक बैठा सूखी रोटियाँ चबा रहा था। उसकी कद, काठी और चेहरे के हाव-भाव से कोई भी सहज अंदाजा लगा सकता था कि वह बलिष्ठ और चरित्रवान है।

उसे घेरे बैठे अन्य नवयुवक साथियों में से एक ने कहा— “क्यों जिद करते हैं, पंडित जी?” “यह जिद नहीं किफायतशारी है।”

“तो अब सूखी रोटियाँ चबाने का आपने नया नामकरण भी कर लिया?”

“समझने की कोशिश करो, रणजीत!"— खा रहे युवक ने पूछने वाले को संबोधित करते हुए कहा। “चलिए आप ही समझाइए।”

“दल की वर्त्तमान आर्थिक स्थिति के अनुरूप प्रत्येक सदस्य को दो आने भोजन के लिए मिलते है। एक आने की रोटियाँ और एक आने का गुड़।" "पर मेरा पेट एक आने की रोटियों से नहीं भर सकता। इसी कारण समूचे दो आने की रोटियाँ खरीद, खा रहा हूँ। आई बात समझ में?"

"बिलकुल नहीं।" सुनने वालों ने एक साथ कहा— "दल के पास बहुत पैसा है।”

"पर खाने के लिए नहीं"— बात काटते हुए नवयुवक ने कहा।

“ठीक है! पर आप हमारे प्रमुख हैं, इसलिए आप यदि खाने में कुछ थोड़ा-ज्यादा खर्च कर लें तो कोई एतराज नहीं; पर यहाँ तो मामला ही उलटा है। आप सूखी रोटियाँ चबाते हैं और हम सबको अपेक्षाकृत अच्छा भोजन मिल जाता है। यह नीति कब तक चलेगी?”

"जब तक संगठन को जीवित रखना है।” “अपने प्रति कठोरता, दूसरों के प्रति उदारता।” “संगठन के जिम्मेदार लोग जब तक इस नीति के अनुरूप व्यवहार करते हैं, तभी तक संगठन जीवित रहता है। सामूहिकता तभी बरकरार रह सकेगी जब तक किफायतशारी को अपनाया और महत्त्वाकांक्षाओं को ठुकराया जाता रहेगा।”

“आ गए न आप घूम-फिरकर वहीं? सिद्धांत सूर्य की तरह है जब तक मानवीय जीवन के विभिन्न ग्रह उसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, उसकी प्रेरणा के अनुरूप अपने को संचालित करते हैं, तभी तक इनका अस्तित्व है। सिद्धांत से विलग हुए कि अस्तित्व समाप्त हुआ।”

"बड़प्पन सुविधा-संवर्द्धन का नहीं, सद्गुण-संवर्द्धन का नाम है"— कहने वाले के स्वरों में पीड़ा थी। “जिसने संगठन बनाया है, उसे ही बिखरने का दर्द होता है। खूबसूरत माला के टूटने की सबसे अधिक पीड़ा माली को होती है।"— कहते-कहते गला भर आया।

साथियों ने एक स्वर से क्षमा याचना की— "हमने आपकी किफायतशारी का मखौल उड़ाया, इसके लिए माफी चाहते हैं। आप जो भी दंड दें, स्वीकारने के लिए तैयार हैं।"

“दंड नहीं, अच्छाई का महत्त्व समझो और स्वीकारो। देश को हम सब लोगों से कितनी आशा है। हम क्रांतिकारी माने जाते हैं, एक बड़े परिवर्तन के लिए प्रयत्नशील हैं”

“क्रांतिकारी का मतलब जानते हो?” कुछ चुप रहकर वह बोले— "जो वर्त्तमान में भी भविष्य में होने वाले परिवर्तन के अनुरूप जी रहा हो। जिसकी जिंदगी के छोटे-छोटे क्रियाकलाप को देखकर हर कोई कह सके— अहा! ऐसा होगा स्वर्णिम-भविष्य जिसके लिए वे लोग प्रयासरत हैं।"

"हम सभी प्रतिज्ञा करते हैं, पंडित जी। सच! आपकी शपथ। हम वैसे ही क्रांतिकारी बनेंगे जैसे आप चाहते हैं।" यह पंडित जी थे— हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी नामक क्रांतिदल के कमांडर इन चीफ चंद्रशेखर आजाद, जिनके आदर्शवादी जीवन ने अनेकों में प्राण फूँके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118