कमरे के कोने में रखी कुरसी पर हाथ में किताब पकड़े गुम-सुम बैठे पति को देखकर गृहिणी ने पूछा— "क्यों जी! इतने परेशान क्यों हैं?"
“कोई खास बात नहीं”— पति ने टालने के स्वर में कहा। "टालने की कोशिश न करिए, चेहरा मानव मन का दर्पण है और वह साफ बता रहा है कि आप विशेष उदास हैं।"
पत्नी के सहानुभूति के स्वरों ने उसे खुलने को प्रेरित किया। "बात समानता, स्वाभिमान और न्याय की है। अंग्रेज प्रोफेसरों को पूरा वेतन मिलता है, जबकि मुझे सिर्फ दो तिहाई देने को तैयार हैं। सिर्फ इस कारण कि मैं हिंदुस्तानी हूँ? छात्रों के कल्याण और स्वाभिमान की रक्षा करते हुए अभी तक मैंने वेतन के चैकों को अस्वीकार किया है।" "तो अब क्या परेशानी है?"
“परेशानी का कारण है— शोधकार्य में व्यय और विवाह के खर्च का दो गुना हो जाना।”
“ओह! तो यह बात है। दुनिया के हर समस्या का समाधान है। इसका क्यों नहीं होगा”? “क्या है समाधान?”— उन्होंने पत्नी के चेहरे की ओर ताकते हुए पूछा।
“हम लोग कलकत्ते की जगह हुगली के पार चंद्रनगर में रहें। इससे मकान किराया आधे से भी कम हो जाएगा। रही बात शोधकार्य की, उसे रोकना न पड़े, इसके लिए मैं अपने सारे गहने आपको दिए देती हूँ। आपका यह कार्य कोई निजी स्वार्थों के लिए तो है नहीं। राष्ट्रीय गौरव के लिए किए जा रहे इस कार्य में गहनों की खपत को अपना सौभाग्य मानूँगी। जहाँ तक अन्य खर्चो का सवाल है, जितने में पहले आप गुजारा करते थे, उतने में ही अब हम दो कर लेंगे। खर्च की यदि व्यवस्थित रीति-नीति अपनाई जाए और मात्र आवश्यक खर्च ही किए जाएँ तो एक के खर्च में दो की बसर सहज संभव है।”
पत्नी की इस अद्भुत योजना को प्रोफेसर पति सुन रहा था। वस्तुतः विवाह साधक भी है और बाधक भी। साधक तब है जब पत्नी और पति दोनों ने भौतिकवादी महत्त्वाकांक्षाओं से रिश्ता तोड़ लिया हो। वे इस बात के लिए संकल्पित हों कि चमक-दमक को तिलांजलि देकर कम-से-कम में अपनी गुजर-बसर करेंगे और अपनी सम्मिलित सामर्थ्य का उपयोग राष्ट्र, समाज और आदर्शो के लिए करेंगे। इसके विपरीत जब महत्त्वाकांक्षाएँ टकराएँ। बेहूदे खर्चे की बेतुकी आदतें सँभाले, न सँभलें तो विवाह सहज बाधक होकर जिंदगी नरक बन जाती है; न स्वार्थ सधता है, न परमार्थ। हम लोगों की स्थिति और मानसिकता में विवाह साधक है और रहेगा।
पति ने कहा— "योजना तो उत्तम है, बातें भी ठीक हैं, पर” “पर क्या?”
"चंद्रनगर में मकान लेने पर रोज-रोज हुगली कैसे पार करेंगे? नाव का किराया कहाँ से आएगा?" "किराया क्यों? पुरानी वाली छोटी नाव मरम्मत करा लेंगे।" "यह भी ठीक है; किंतु घर में अध्ययन और शोधकार्य, कॉलेज में अध्यापन। ऐसी स्थिति में नाव चलाने का अतिरिक्त श्रमकार्य में व्यवधान बनेगा। जहाँ अभी रात भर काम कर लेता हूँ, वहाँ सोना पड़ेगा।"
“यह तभी होगा न, जब आप नाव चलाएँगे? “मैं नहीं तो फिर कौन?” "मैं"— पत्नी का दृढ़ स्वर था। "तुम?"— पति ने विस्फारित नेत्रों से देखा। "क्यों! विश्वास नहीं क्या?" “तुम पर नहीं तो किस पर विश्वास करूँगा।"
उस दिन के बाद नियमित क्रम बन गया। पत्नी नाव चलाती, पति वैज्ञानिक समस्याओं के समाधान सुलझाते रहते, उनके अध्ययन में व्यवधान न पड़ता। उन्हें पहुँचाकर वापस होती, शाम को लेने आ जाती। वर्षों यह क्रम चलता रहा। पत्नी की तपश्चर्या एवं पति की दृढ़ता के सामने अंग्रेज अधिकारियों को झुकना पड़ा। न्याय मिला, वेतन समान हुआ। वह भी अब तक विश्वविख्यात वैज्ञानिक हो चुके थे।
पति की नाव खेने वाली श्रमशील पत्नी थी— अबला बसु एवं पति थे— प्रख्यात वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु। अबला बसु ने अनुकूल परिस्थितियाँ आने पर भी काम नहीं छोड़ा। वे सिस्टर निवेदिता के साथ सतत शिक्षण में लगी रहीं, गिरों को उठाती रहीं। पति-पत्नी एक साथ मिलकर किस प्रकार अपने पुरुषार्थ से नवनिर्माण का प्रयोजन पूरा कर सकते हैं, इसकी साक्षी देते हैं— बसु दंपत्ति।