बुद्ध से मिलने एक घुमक्कड़ साधु आया। बुद्ध से आकर कहा— “भगवन! मेरे पास न बुद्धि है, न चातुर्य, न शब्द है, न कुशलता; अतः मैं कोई प्रश्न अथवा जिज्ञासा कर सकने की स्थिति में भी नहीं हूँ। यदि मुझे पात्र समझें तो मेरे योग्य जो कुछ भी कह सकें, कह दें।” घड़ी भर के लिए बुद्ध मौन हो गए। संत भी शांत बैठा रहा। कौतूहलवश सभी भिक्षु उन्हें निहारते रहे। अचानक देखा कि साधु की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उसने बुद्ध को साष्टांग प्रणाम किया और धन्यवाद देते हुए बोला— "बड़ी कृपा की भगवन! आज मैं धन्य हो गया” और नाचता-गाता, गुनगुनाता चला गया। हतप्रभ शिष्यमंडली देखती रही। बुद्ध एक शब्द भी नहीं बोले, फिर आखिर क्या घट गया, उस साधु के जीवन में?
आनंद ने बुद्ध के पास जाकर पूछा— "भगवन! कुछ समझ में नहीं आया, न कोई वार्त्तालाप ही हुआ, न कोई प्रश्नोत्तर। फिर क्या घट गया आप दोनों के बीच कि साधु परम संतुष्ट होकर लौट गया। हम वर्षों से आप के पास हैं, फिर भी वैसा कुछ घटित नहीं होता।"
बुद्ध ने मौन तोड़ते हुए कहा— “आनंद! घोड़े चार प्रकार के होते है। एक अड़ियल घोड़ा होता है, जो चाबुक मारने पर भी टस-से-मस नहीं होता, जितना मारो उतना ही हठ पकड़ लेता है। दूसरा ऐसा होता है कि मारो तो चल पड़ता है। तीसरे घोड़े कोड़ा फटकारते ही चल पड़ते हैं। चौथे घोड़ों को कोड़े की छाया ही काफी है। बस यह साधु ऐसी ही आत्मा थी। उसे इशारे भर की ही जरूरत थी और वह मेरे मन ने कही, उसके मन ने ग्रहण कर ली। तुम्हारे मन तो उन जिद्दी घोड़ों की तरह हैं कि कोड़े फटकारते रहने पर अपनी जिद पर अड़े हैं।" बात शिष्यों की समझ में आ गई। समर्पणभाव से गुरु से ग्रहण किया जाए तो बिना बोले, बिना कहे ही सब पाया जा सकता है।