चेतना की परतें व उनका रहस्योद्घाटन

February 1990

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मानवी चेतना जल में पड़ी बर्फशिला की भाँति हैं, इसका जितना हिस्सा जागते समय बाहरी क्रियाकलापों के माध्यम से प्रकट होता है, उससे कई गुना अधिक अंदर है। स्वप्नों के माध्यम से हम सभी को इसी अंदर वाले हिस्से की झलक-झाँकी दिखती रही है। यदा-कदा मिलने वाली इस झाँकी से अंतराल के स्वरूप और स्थिति की जानकारियाँ मिलती रहती हैं। स्थिति काई से ढके तालाब की भाँति है। हवा का झोंका आने पर थोड़ी काई हटी और नीचे का पानी प्रकट हुआ। यदि इस छोटी-सी घटना का गहराईपूर्वक निरीक्षण-अध्ययन किया जाए तो नीचे के पानी के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है।

नींद के झोंकों के बीच मिलने वाली झाँकियों के संबंध में ठीक यही बात हैंं। यदि झाँकियों की सावधानीपूर्वक विवेचना-विश्लेषण की आदत बन पड़े तो आत्मपरिष्कार-आत्मसुधार की दिशा में एक प्रभावी कदम साबित हो सकता है। यह बात सर्वविदित है कि व्यवहार का वृक्ष चिंतन के बीजों से अंकुरित होता, चरित्र के पौधे के रूप में विकसित हो, व्यवहार विटप के रूप में अपना विस्तार करता है। स्वाभाविक है, यह विस्तार बीज के अनुरूप हो। बबूल का बीज तो बड़ा होकर खुद की तथा दूसरों की राह पर काँटे ही बिखेरेगा। उससे यह उम्मीद कैसे की जाए की आम के स्वादिष्ट फल खाने को मिलेंगे। आम के लिए तो भूमि को कुरेदकर बबूल के बीज को निकालने, आम के बीज को गाड़ने जैसी प्रक्रियाओं में संलग्न होना होगा।

मनोभूमि के संदर्भ में भी यही तथ्य लागू होता है। इसे उर्वर बनाने, दुश्चिंतन के बीजों को नष्ट करने, सत्चिंतन को उगाने जैसी प्रक्रिया चल पड़े तो समूचा जीवन बदलता नजर आने लगेगा। स्वप्न की छान-बीन, इस प्रक्रिया में बहुत अधिक सीमा तक सहायक सिद्ध हो सकती है, यदि इनकी बारीकियों को समझा जा सके। आज के मनोवैज्ञानिक ने भी इस बात को स्वीकार किया है। उनके अनुसार नींद में दिखाई देने वाले सपनों के माध्यम से तीन चीजें उजागर होती हैं, वर्तमान चिंतन, गहरे पड़े भले-बुरे संस्कार और मनोभूमि की उर्वर या बंजर स्थिति। यही तीन भिन्न-भिन्न रूपों, झाँकियों के माध्यम से स्वप्नों के झरोखे से प्रकट होते अपनी झलक दिखाते रहते हैं।

मानसशास्त्रियों के अनुसार आंतरिक चेतना की एक और खूबसूरती है— विचारों को आकार का रूप देना। मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में किसी रोगी की सेवा करने का विचार आया तो वह स्वप्न में अपने को रोगी की सेवा करते हुए देखेगा। विचार ऊपरी सतह पर होते हैं और संस्कार गहराइयों में। यही कारण है कि स्वप्नों में इनका आकारों के रूप में उभरना कहीं अधिक अस्पष्ट, प्रतीकात्मक धुँधला, यहाँ तक कि कभी-कभी बेतुका-सा लगता है।

अंतराल के किसी कोने को देखकर समूचे के बारे में कोई राय नहीं दी जा सकती। यदि एक कोना खराब है तो दूसरा अच्छा भी होगा। कही बुरे संस्कारों के बीज छुपे हैं तो कहीं अच्छों के अवश्य होंगे। इस बारीकी को न समझ पाने के कारण मनोविज्ञान के आचार्य सिग्मण्ड फ्रायड सारे स्वप्नों को दमित वासनाओं का उभरना मान बैठे। वह अपनी किताब 'इन्टरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स' में कहते हैं कि, "हमारी वे सभी इच्छाएँ अथवा मनोकामनाएँ, जिनकी तृप्ति जगने की हालत में नहीं हो पाती, मन की गहराइयों में चली जाती हैं। सामाजिक मर्यादाओं अथवा साधनों के अभाव के कारण इनकी पूर्ति साधारण ढंग से नहीं हो पाती। फलतः ये नष्ट न होकर गहरे में चली जाती हैं और स्वप्नों के माध्यम से अपना प्रदर्शन करती रहती हैं।"

फ्रायड के इस कथन में सच्चाई तो है, पर थोड़ी। उसी की बेटी अन्ना फ्रायड और शिष्य एडलर ने बात साफ की है। इन दोनों के अनुसार वह मनोरोगियों, अपराधियों की मनोदशा का अध्ययन करते रहने के कारण, मन के गँदले कोने को बार-बार देखने, झाँकने के कारण समूचे मन को गँदला समझने की भूल कर बैठे। कुछ भी हो, भूल तो भूल ही है, इसे सँभालना-सँवारना ही उचित है। एडलर के अनुसार— सपनों के द्वारा चिंतन-चरित्र, कार्य-संचालन के तौर-तरीकों की बारीकियाँ परखी जा सकती है। उदाहरण के लिए दो परीक्षार्थियों के स्वप्न को लें। एक देखता है कि मैं पहाड़ की चोटी पर खड़ा हूँ और दूसरा कि मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ। इसका मतलब है कि पहला आत्मविश्वासी है। दूसरे के मन में अपने प्रति विश्वास की कमी है और वह परीक्षा का लड़ाई जैसा दृष्टिकोण रखता है। कमी को परख लेने पर वह और अधिक पढ़ाई करके आत्मविश्वास को मजबूत बना सकता है।

बात न केवल आत्मविश्वास की है; वरन अन्यान्य सद्गुणों की भी। यदि कोई लगातार हिंसक घटनाओं, मारपीट, दुर्व्यवहार के स्वप्न देखता है तो इसका मतलब उसमें करुणा-संवेदना, सहायता की कमी है। इस स्थिति में यदि वह सद्विचारों पर लगातार चिंतन करके इन गुणों पर आस्था जमाए और व्यवहार के माध्यम से इनको सक्रिय करे तो धीरे-धीरे ये अपने जीवन का अविभाज्य अंग हो जाएँगे। सद्गुणों की जितनी अधिक सघनता होती है, सद्विचारों के द्वारा मन जितना अधिक प्रकाशित होता है, सपने उतनी ही अधिक गहराई की कहानी सुनाते हैं। 'मेमोरीज, ड्रीम्स, रिफलेक्शन्स' के लेखक मानव मन के आचार्य कार्लजुंग ने इसे स्वीकारते हुए अपने निजी अनुभव से प्रामाणिक ठहराया है। उनका इसी किताब में कहना है कि, "सन् 1944 में एक दिन मैंने सपना देखा कि एक पहाड़ी सड़क में टहल रहा हूँ। पास में मंदिर है। इसके एक के बाद एक दरवाजे खोलने के बाद मंदिर में घुसा। देखा, विभिन्न तरह के फूलों से घिरा एक योगी गंभीर ध्यान में बैठा है। चारों ओर खुशबू उड़ रही है। योगी के चेहरे की ओर देखा तो पाया कि यह और कोई नहीं, मैं स्वयं हूँ। अरे! यह क्या? और नींद खुल गई।"

इसका विवेचनकर उन्होंने बताया— "कई दरवाजे अपनी ही चेतना की कई परतें थीं। योगी के रूप में था— उनका आत्मदेव, जो विभिन्न गुणों के फूलों से घिरा था, खुशबू और कुछ नहीं— इन्हीं गुणों की सुवास थी। बाहर भटकने वाला था, उनका अहंकार। इस सपने के बाद ही उन्होंने अपनी शोध में आत्मा और अहम् का ब्यौरा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने सेवा-साधना-सत्चिंतन के माध्यम से आत्मसत्ता को व्यवहारव्यापी बनाने का क्रम शुरू किया।"

हम स्वयं के सपनों की छान-बीन इसी ढंग से करें। इन्हें देखने के बाद ढूँढ़-खोज करें कि किस क्षेत्र में कौन-सी कमी है। खराबी को ढूँढ़ने के बाद सुधार संभव है। सुधार के लिए सद्गुण का अभावपूर्ति के लिए सद्विचारों का सहारा लें। गहराई से चिंतन करने से गुण के प्रति आस्था जगेगी, दोषों से विरक्ति होगी। इतना ही नहीं, पूर्ण मनोयोग से उसे क्रिया-व्यवहार में उतारें। चेतना की गहरी परतों में दुर्गुणों की खरपतवार उखाड़ने, सत्प्रवृत्तियों की फसल रोपने का यही तरीका है।

महर्षि अरविंद की सहयोगिनी श्री माँ का 'मातृवाणी खंड 2' में यही कहना है। उनके अनुसार— आत्मनिरीक्षण के लिए स्वप्नों से अधिक सरल, रोचक और गहरा तरीका कोई दूसरा नहीं। इस दशा में व्यक्तित्त्व की किताब के पन्ने नींद के झोंकों से उलटते रहते हैं। इन्हें पढ़कर गड़बड़ियों का सुधार सहज संभव है। आचार्य शंकर ने इसी कारण निद्रा को भी साधना की श्रेणी में गिना है। उन्होंने सपनों को झूठा न ठहराकर प्रतिभासित सत्य की श्रेणी में रखा है। स्वप्नों में गहरे आत्मनिरीक्षण और जागरण में आत्मसुधार का क्रम चल पड़े तो व्यक्तित्व का काया पलट होते देर नहीं लगेगी।


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