तीसरा संस्करण

February 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक बौद्ध भिक्षु चिंतामग्न बैठे थे। आस-पास घेरे बैठे कुछ लोगों में से एक ने पूछा— "भगवन! आप इतना अन्यमनस्क क्यों हैं?"

"मैंने भारत में भगवान तथागत के कुछ दुर्लभ उपदेश मूल पाली भाषा में प्राप्त किए थे।"

"तो खो गए?"— पूछने वाले ने चिंता का अनुमान लगाया।

"नहीं! वे मेरे पास हैं और मैंने उन सबको यहाँ की जापानी भाषा में अनूदित भी कर लिया।" "यह प्रसन्नता की बात है, फिर चिंता क्यों?"

"चिंता प्रकाशन की है, जो बिना धन-संग्रह के संभव नहीं।"

"यह कार्य तो यहाँ के धनपतियों को प्रभावितकर सहज ही किया जा सकता है।"

"फिर आप ही कुछ सुझाएँ","क्यों न हम सब मजदूरी करें?"

"मजदूरी और भिक्षु यह कैसे संभव होगा?" सभी के चेहरों पर आश्चर्य के भाव थे।

"साधन भी कार्य की गरिमा के अनुरूप होना चाहिए। श्रमशीलों के बीच में अपनी प्रामाणिकता साबित करने का यही माध्यम है। प्रामाणिक हुए बिना लोकसेवा संभव नहीं।"

भिक्षुओं ने मजदूरी करना शुरू किया। लोग आते और पूछते— "ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी? आने वालों को उद्देश्य से, तथागत के उपदेशों से अनुप्राणित किया जाता है।" सुनने वालों ने सहायता का क्रम शुरू किया।

यह क्रम चल ही रहा था कि तब तक जापान के एक इलाके में दुर्भिक्ष पड़ा। भिक्षु का मन बेचैन हो उठा। उसने पीड़ितों की आँखों में सेवा की प्यास देखी। संग्रहित धन को अकालपीड़ितों की सहायता में लगा देने का निश्चय किया।

शिष्यों ने एक बार पुनः विरोध प्रकट किया। “इतने परिश्रम से इकट्ठे धन को यों ही खर्च कर देना?”

विरोध को शांत करते हुए भिक्षु का उत्तर था— "स्वयं को भूलो मत। हमारा धन, विभूति एक ही है— अंतःसंवेदनाएँ। जब तक यह हैं, हम कंगाल नहीं हो सकते। यह न रही तो हम सभी निष्प्राण हो जाएँगे। हमारा उद्देश्य जनसेवा है, धनोपार्जन नहीं।"

"पर पुस्तक प्रकाशन?"

"जन जीवित रहा तो पुस्तक भी छपेगी।" भूखों को भोजन देने, वस्त्रहीनों को कपड़े बाँटने में सारी राशि समाप्त हो गई।

दूसरे वर्ष पुनः वर्षा हुई। क्षेत्र से अकाल के बादल छटे। भिक्षु पुनः धन-संग्रह में लग गए। इस बार अपेक्षाकृत कम समय में अधिक धन-संग्रह हुआ। भिक्षु को संतोष था। इस कारण नहीं कि धन जल्दी इकट्ठा हो गया, बल्कि इस कारण कि वह प्रामाणिक साबित हो गया। अब कहीं अधिक उत्तम रीति से वह अपना काम कर सकेगा।

लेकिन इस बार दूसरे क्षेत्र में अतिवृष्टि हुई। नदियों में बाढ़ आ गई। सारे इलाके की फसल को बड़ी क्षति हुई। इस बार श्री महाभिक्षु ने सारा धन बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ लगा दिया।

इस बार कुछ शिष्य तो हताश होने लगे थे; पर भिक्षु ने उसी उत्साह के साथ धन-संग्रह करना शुरू किया। अबकी बार अपेक्षाकृत और कम समय लगा। संयोग से इस बार कोई प्राकृतिक प्रकोप नहीं हुआ। फलस्वरूप पुस्तक प्रकाशित हो गई।

इस अनुवाद को अनेकों ने पढ़ा और महाभिक्षु के प्रयत्नों की सराहना की। मुखपृष्ठ पर संस्करण के सामने लिखा था— 'तीसरा संस्करण'। लोगों ने पूछा— "यह तो पहली बार छपी है, इसके पूर्व के दो संस्करण कब और कहाँ प्रकाशित हुए?"

"पहले दो संस्करण उन्हीं लोगों को दिखाई देंगे, जिनके पास सेवा और संवेदना की दो आँखें हैं।"— महाभिक्षु भोग्गालि पुत्तस का उत्तर था। उनने अपने जीवन में इन्हीं आँखों से देखा और अंत तक सक्रिय रहे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles