नारी जाग्रति का स्वरूप एवं आदर्श

February 1990

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‘नारी जाग्रति अभियान’ में उन प्रयासों की गणना की जाती है, जिनका उद्देश्य महिलाओं की दशा में सुधार लाना, उन्हें ऊँचा उठाना, उनकी सामाजिक स्थिति सँवारना है। पश्चिम में इस तरह के प्रयत्नों का आरंभ 18 वीं सदी में हुआ और पूर्व विशेषतया भारत में यह प्रक्रिया 19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध से शुरू हुई। भले ही ये प्रयास छुट-पुट हुए हों; पर समूची एक सदी बीत जाने पर भी महिला जाग्रति का कोई स्पष्ट स्वरूप सामाजिक-सांस्कृतिक पटल पर उभर कर नहीं आ सका है।

इस संबंध में आवश्यकता इस बात की है कि विशेषतया भारत में महिलाओं की गई-गुजरी स्थिति के कारण क्या हैं? ये कैसे उपजे? और इनके निवारण की रणनीति क्या हो आदि प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया जाए, तभी महिला जाग्रति का स्वरूप व उद्देश्य स्पष्ट हो सकता है।

सामाजिक संरचना का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि कतिपय प्रबुद्ध नारियों को छोड़कर अधिकांश की स्थिति किसी-न-किसी तरह बंधक-सी है। इसके मूलतः दो कारण हैं— अनिश्चितता और असुरक्षा। अनिश्चितता का संबंध आर्थिक क्षेत्र से है। आज की स्थिति में इस क्षेत्र में प्रधानतया पुरुषों के वर्चस्व हैं और अर्थशक्ति युगशक्ति के रूप में पूजी जा रही है। परिणामस्वरूप पुरुष वर्ग सरलता से उन पर शासन करने में सक्षम हो जाता है। उन्हें भी अनिश्चितता निवारण हेतु बरबस शासित होना पड़ता है। असुरक्षा के पीछे साहस को दबा दिए जाने का भाव है। उनके मनों में सदियों से यह भाव भर गया कि तुम अक्षम हो, दुर्बल हो, यहाँ तक कि अबला ही कहा जाने लगा। कहा जाता है— लगातार सौ बार कहा गया झूठ भी सत्य प्रतीत होने लगता है। स्थिति ऐसी ही हुई, इस समूचे वर्ग ने अपने को अबला मान भी लिया। इस मान्यता के कारण सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें पुरुषों का आश्रय आवश्यक हो गया। एक युग में तो यह नीति ही बन गई कि बचपन में उनकी रक्षा पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र करें। नारी प्रत्येक स्थिति में रक्षणीय है। जैसे-जैसे उक्त दोनों कारणों की जड़ें गहरी होती चली गईं, महिलाओं की स्थिति बँधुआ— आश्रित की-सी हो गई। यहाँ तक कि उसकी स्वतंत्र स्थिति ही न रह गई। पति, पिता, पुत्र से ही उसका परिचय होने लगा।

यदि मानवी सभ्यता के आदिकाल की ओर लौट चलें, उस समय की सामाजिक स्थिति पर नजरें घुमाएँ, जबकि सामाजिक संरचना हो रही थी। तब यह साफ हो जाता है कि कारण क्यों उपजे, कैसे पनपे और किस तरह आज की स्थिति में बबूल के बगीचे की तरह मानवीय सभ्यता की राह में कंटक बिखराने वाले हुए। नृतत्वशास्त्री ई. बौरग्यूग्नन अपने अध्ययन 'साइकोलॉजिकल अन्थ्रोपोलॉजी' में बताते हैं कि प्रारंभ में नर और नारी दोनों ही वैचारिक, बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं कि दृष्टि से समान थे। एच. कोचेटेवा का पैलियो एनोटॉमी में कहना है कि, "उनकी पारस्परिक शारीरिक क्षमताएँ भी समान थीं। दोनों ही शिकार खेलने, झोपड़ी बनाने आदि अनेकों कार्यों में बराबर की भागीदारी रखते थे। छोटे-बड़े जैसा कोई भाव ही न था।"

ए. मारशाक ने 'रूट्स ऑफ सिविलेजेशन' में सामाजिक संरचना के प्रारंभिक स्वरूप को स्पष्ट किया है। जैसे-जैसे यह संरचना जटिल हुई, परिवार संस्था बनी और परिपक्व हुई। ऐसी स्थिति में उस समय के विचारकों ने पुरुषों और महिलाओं की मानसिक स्थिति और गहराइयों का अध्ययन गुणों और मौलिकता को आधार मानकर करना शुरू किया। पुरुषों में वीरता, कर्मठता और नारियों में करुणा, ममत्व जैसे गुणों की प्रधानता पाई गई। सामाजिक संरचना का ताना-बाना बुनते समय आवश्यकता हुई कि श्रम व कार्य का विभाजन किया जाए।

इस विभाजन में यह ध्यान रखा गया कि प्रत्येक के मौलिक गुणों के अनुरूप उसे काम मिले। इससे दो लाभ सोचे गए, प्रथम तो व्यक्ति की अपनी मौलिक क्षमता अपनी चरम स्थिति प्राप्त करे, दूसरे— समाज को उसका अधिकाधिक लाभ मिले। इसी प्रक्रिया के अंतर्गत नारी को पारिवारिक दायित्व सँभालने का अवसर मिला, क्योंकि शिशुपालन, प्रशिक्षण, पारिवारिक संगठन में ममता आदि की विशेष आवश्यकता थी। पुरुष को यह जिम्मेदारी मिली कि वह परिवार के लिए सुविधा जुटाने, सुरक्षा करने का भार वहन करे।

उस समय छोटे-बड़े की भावना न थी। समाज मातृप्रधान था। वैदिककाल तक यही बात थी। नारी के दो स्वरूप थे— एक सद्योवधू, दूसरा ब्रह्मवादिनी। सद्योवधू की जिम्मेदारी थी कि वह परिवार को सुदृढ़ बनाए, समाज को सुयोग्य संस्कारवान संतति दे। ब्रह्मवादिनी का दायित्व था कि वह नारियों की जाग्रति बनाए रखे। उन्हें कर्त्तव्य मार्ग पर आरूढ़ रहने के लिए प्रोत्साहित करती रहे। इसी संदर्भ में महाभारत में एक सुलभा नाम की संन्यासिनी का जिक्र आता है जो घूम-घूमकर अपने इस दायित्व को निभाती थी। मातृप्रधान समाज होने के कारण संतान का परिचय प्रायः माँ के नाम के साथ जोड़कर दिया जाता था। इतरा के पुत्र होने के कारण ऐतरेय नाम हुआ, जो बाद में उपनिषद्कार हुए। जाबाला के पुत्र होने के कारण सत्यकाम, सत्यकाम जाबाल के रूप में प्रचलित हुए।

परिवर्तित मूल्यों के अनुरूप समाज का स्वरूप भी बदला। लगातार आक्रमणों में भागीदारी, परिवार व समाज को सुरक्षा प्रदान करते रहने के कारण पुरुषों का गौरव बढ़ता गया। धीरे-धीरे स्थिति यह आई कि सुविधा और सुरक्षा जुटाते रहने के कारण पुरुषों ने अपने वर्चस्व को मान्यता दी। नारी ने इस पर अपनी स्वीकृति जाहिर की। लगातार किसी कार्य व भाव के करने व स्वीकारने से मन की संरचना उसी के अनुरूप ढलने लगती है। शरीर भी वैसा ही हो जाता है।

हुआ भी यही। कोमलता स्त्रियों का भूषण हो गई, भीरुता को शृंगार माना जाने लगा। मध्ययुगीन अंधकार के छापों ने इसे और बढ़ावा दिया। विकृत होती परंपराएँ आज रूढ़ियाँ बन चुकी हैं। इन्हें तब तक नहीं तोड़ा जा सकता जब तक नारी पुनः असुरक्षा व अनिश्चितता को परे न झटक दे, अर्थात उसका साहस उभरे और आर्थिक क्षेत्र में समानता सिद्ध करे।

नारी जागरण की क्रियापद्धति यही होनी चाहिए। इसके लिए इन्हीं दोनों मोर्चों पर लड़ना होगा; किंतु इनमें से आर्थिक क्षेत्र को प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि यह सामान्य सूत्र है कि परावलंबी कभी साहसी नहीं हो सकता। साहस के बिना असुरक्षा का भाव मिटने से रहा। आर्थिक क्षेत्र में प्रगति के लिए आवश्यक नहीं कि नौकरी ही की जाए। गृह-उद्योग चलाने उसमें निष्ठापूर्वक अपने को नियोजित करने में सफलता असंदिग्ध हो जाएगी।

गृह-उद्योग, कुटीर-उद्योग की परंपरा यदि नारी समुदाय के बीच चल पड़े तो यह उत्पादक श्रम की प्रक्रिया स्वाभिमान जगाए बिना न रहेगी। आज की स्थिति मशीनों और मिलों, फैक्ट्रियों के युग में ये बातें हास्यास्पद लग सकती है। हो सकता है, यह भी सोचा जाए कि नारी जागरण से इसका संबंध क्या है? किंतु यह सोच उन्हीं की होगी जो मानव मन की संरचना से अपरिचित है। नमक आंदोलन, दांडी मार्च, और चरखा इन सबका स्वराज्य से दूर-दराज तक का कोई संबंध न था; किंतु इनमें से प्रत्येक ने जो जनक्रांति फैलाई उससे शायद ही कोई अपरिचित हो।

ऐसा ही एक प्रयास गृह-उद्योगों का है। भले उससे दो तीन रुपए रोज का ही काम क्यों न हो, किंतु जब खाली समय यों ही बिताने वाली महिलाएँ इसमें जुटेंगी तो न केवल उनकी श्रमशीलता बढ़ेगी, बल्कि महत्त्व भी जगेगा। उन्हें यह स्पष्ट अनुभव होगा कि हम भी कुछ कर सकती हैं। यह उभरा हुआ साहस, शिक्षा व उत्कृष्ट विचारों से मिलकर असुरक्षा के भाव को भी दूर फेंक देगा।

किंतु इस संबंध में महत्त्वपूर्ण काम है— महिलाओं में इसके प्रति रुचि जगाना। यह कोई कम कठिन काम नहीं है। सदियों से एक ही भाव में रहते हुए उनके मन में यह जम गया है कि यह सब काम हमारे लिए नहीं है। पालतू तोते पिंजरा खोल देने पर भी नहीं उड़ते। इधर-उधर घूम-टहलकर फिर वापस आ जाते है। इनकी मुक्ति के लिए इतना काफी नहीं है कि पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया जाए। कार्य तब सधेगा जब उन्हें उड़ना सिखाया जाए।

इंडोनेशिया में इस तरह के कार्य में अग्रणी की भूमिका निभाई ‘रेडन एडजंग कार्तिनी’ ने। उन दिनों इंडोनेशिया में नारी जाति की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उनका न कोई अधिकार था, न सम्मान। घर में उन्हें दासियों की भाँति रखा जाता। प्रतिष्ठित परिवार में जन्म लेने पर कार्तिनी बचपन से ही नारी की इस दयनीय दशा के प्रति दुःखी रहा करती। इसका एक कारण यह भी था कि उन्हें बारह वर्ष की अल्पायु में सिर्फ इसीलिए स्कूल छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह नारी जाति सदस्या थी। बड़ी होने पर रेडन अपनी दो बहिनों के साथ नारी जागरण में जुट गई। लेखनी, वाणी व कर्मठता तीनों ही विधाएँ उन्होंने अपनाईं। नारी प्रगति के लिए लेख लिखकर समाज के कर्णधारों, बुद्धिजीवियों का ध्यान इसके प्रति आकर्षित करना। घर-घर जाकर महिलाओं में शिल्प, गृह उद्योग के माध्यम से आर्थिक स्वावलंबन हेतु रुचि जगाना। इस संबंध में उन्होंने बहुत कुछ सफलता भी पाई। इसी कारण 21 अप्रैल को उनका जन्मदिन नारी विकास के मील के पत्थर के रूप में इंडोनेशिया में बड़ी घूम-धाम तथा सम्मान के साथ मनाया जाता है।

ऐसा ही प्रयास भारत में किया श्रीमती उर्मिला शास्त्री ने। यों इनका जन्म कश्मीर में हुआ। बाद में गाँधी जी के संपर्क में आईं। इसी बीच धर्मेंद्रनाथ शास्त्री से विवाह भी हुआ। उन दिनों पुरुषों के सभा-सम्मेलन तो हुआ करते थे; किंतु महिलाओं के नहीं होते थे। महिलाएँ जग उठी हैं, इसका बोध कराने के लिए 30 जनवरी 1930 को मेरठ में एक विशाल महिला सम्मेलन का आयोजन किया और जिसकी अध्यक्षा के रूप में विचारोत्तेजक भाषण दिया, जिसमें महिलाओं को जगाने का उद्बोधन किया। उन्हें उठ खड़े होने की प्रेरणा दी। सन् 1937 में उन्होंने मेरठ में एक महिला दस्तकारी स्कूल की स्थापना की। आरंभ में इस स्कूल की अध्यापिकाओं एवं प्रबंध खर्च अपनी गाँठ से किया। इस छोटे से स्कूल ने पर्याप्त प्रगति की। आज यह 'उर्मिला महिला दस्तकारी स्कूल' के रूप में उनके कार्य के जीवंत स्मारक के रूप में क्रियाशील है।

अभी तक किए गए ये प्रयास सराहनीय और प्रेरक तो हैं; पर छुट-पुट होने के कारण अधिक व्यापक नहीं हो सके हैं। समय की माँग यह है कि व्यवस्थित, सुनियोजित रूप में महिला जागरण का प्रयास एक आंदोलन-अभियान के रूप में गतिमान हो। इसके लिए बुद्धिजीवी पुरुषों को तो क्रियाशील होना ही पड़ेगा; पर प्रबुद्ध महिलाएँ भी अग्रिम पंक्ति में आए, क्योंकि अनुकरण-अनुसरण मनुष्य की सहज मनोवृत्ति है। कोई भी चीज सैद्धांतिक रूप में समझ में नहीं आती है; पर उसके व्यावहारिक स्वरूप व परिणामों को देखते ही सहज अपनाने का जी करता है। विज्ञान अपनी इसी विशेषता के कारण विजयी हुआ और लोगों के गले उतरा है। जैसे-जैसे इस प्रयास में तेजी आएगी संतोषजनक परिणाम भी दिखाई देंगे। नर और नारी एक समान का सूत्र एक तथ्य बनकर उभरेगा। नारियाँ भी अपनी उस गरिमा व वर्चस्व को पा सकेगी, जिसके आधार पर उन्हें अगले दिनों बड़ी जिम्मेदारियाँ व दायित्व वहन करने हैं। परिस्थितियों व समय की माँग को समझकर जुट पड़ा जाए, यही श्रेयस्कर है।


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