सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं, इष्ट के साथ विसर्जन माँगती है (कहानी)

February 1990

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एक शिष्य वर्षों गुरु आश्रम में रहा। एक दिन उसने देखा कि उसका गुरु पानी पर चला आ रहा है। यह देखकर वह बहुत चकित हुआ। जब गुरु पास में आए तो वह पैरों पर गिरकर बोला कि आप तो बड़े चमत्कारी हैं। यह रहस्य आपने अब तक क्यों छिपाए रखा। कृपया मुझे यह सूत्र बताइए कि पानी पर किस प्रकार चला जाता है, अन्यथा मैं आपके पैर नहीं छोड़ूँगा। गुरु ने कहा— “उसमें कोई रहस्य नहीं है। बस भरोसा करने की बात है। श्रद्धा चाहिए। श्रद्धा हो तो सब कुछ संभव है।” गुरु ने कहा— “नाम स्मरण काफी है।” वह शिष्य नाम रटने लगा। अनेकों बार नाम-जप करने के उपरांत उसने पानी पर चलने की बात सोची और जैसे ही पानी में उतरा कि डुबकी खा गया। मुँह में पानी भर गया। बड़ी मुश्किल से बाहर आया। बाहर आकर बड़ा क्रोधित हुआ। गुरु के पास जाकर बोला— “आपने बहुत धोखा दिया। मैंने कितने ही बार आपका नाम जपा, फिर भी डुबकी खा गया। यों मैं तैरना भी जानता हूँ। मगर मैंने सोचा कि बहुत जप लिया नाम, अब तो पूरी हो गई होगी श्रद्धा वाली शर्त और जैसे पानी पर उतरा, डुबकी खा गया। सब कपड़े खराब हो गए। कुछ बात जँची नहीं।” गुरु ने कहा— "कितनी बार नाम जप किया।" शिष्य ने कहा— "अनगिनत बार जप किया। किनारे पर खड़े-खड़े भी किया। पानी पर उतरते समय भी और डूबते-डूबते भी करता रहा।” गुरु ने कहा— "बस डूबने का यही कारण है। श्रद्धा होती तो बस एक बार ही का नाम-जप पर्याप्त था। बस एक बार राम-राम कह दिया, वही काफी था।” सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं, इष्ट के साथ विसर्जन माँगती है।


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