उन दिनों वह साधारण शिक्षक थे। औरों की तरह परमार्थ में कम, व्यक्तिगत स्वार्थों में अधिक समय खप रहा था। जिंदगी यों बीत रही थी। एक दिन जब वह सड़क से गुजर रहे थे, देखा— एक मजदूर बालक अपनी सामर्थ्य से कहीं बहुत अधिक बोझा उठाकर ले जा रहा था। कहीं दूर से आ रहा होगा। भार लादकर निरंतर चलते-चलते वह इतना अधिक थक गया कि रास्ते में ही ठोकर खाकर गिर पड़ा। एक बार खून की उलटी हुई और बालक के प्राण-पखेरू उड़ गए।
इस घटना ने उनकी अंतःकरण की संवेदनाओं को झकझोर कर दिया। उनकी सोई हुई भावनाएँ अंकुरित हो उठीं। वह सोचने लगे कि यदि इस बालक के माता-पिता होते तो क्या इस छोटी-सी उम्र में इस तरह कष्ट उठाना पड़ता? यों असमय में ही काल-कवलित हो जाता? किंतु दूसरे ही क्षण विचार आया यदि इसके माता-पिता नहीं हैं तो क्या हम जैसों का दायित्व नहीं है कि इसे समुचित संरक्षण दें? क्या ऐसे माता-पिताविहीन बालकों के अंधकारमय जीवन में ऐसी ज्योति प्रज्वलित की जा सकती है जो कि ठोकर खाते इन अनाथ बालकों को सही मायने में मनुष्य बना दें।
अपने-पराए का भेद तभी तक है जब तक भावनाओं का स्रोत सूखा है। बुद्धि तर्कों के ताने-बाने से स्वार्थो का जाल-जंजाल बुनती जा रही है। जब तक ऐसा है, तभी तक भेदभाव की खाइयाँ-टेकरियाँ मनोभूमि को ऊबड़-खाबड़ बनाए रखती हैं। भावनाओं का निर्मल स्रोत फूटा कि मनोभूमि समतल और उर्वर बनी। उससे सद्गुणों की फसल लहराई। उनके जीवन में इस घटना ने ऐसा ही मोड़ दिया।
अपनी कमाई का थोड़ा-सा अंश जिंदगी की अनिवार्य जरूरतों में लगाकर बाकी बचे धन को अनाथ बालकों के विकास में लगाना शुरू कर दिया। वे न केवल अपने पड़ोस से, बल्कि दूर-दूर से भी अनाथ बालकों को ढूँढ़-ढूँढ़कर लाते तथा उनके पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध करते थे। उनकी शिक्षा का मंतव्य बालकों को स्वावलंबी, सुसंस्कारी बनाना था। उनकी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि इन बालकों को सदाचारी-सद्गुणी बनाया जाए तथा उनके मन पर ऐसे संस्कार डाले जाए, जिससे वे मानव कल्याण में योगदान दे सके, विश्वात्मा के प्रति समर्पित हो सके।
लगनशीलता तो थी; पर धन घट गया। इसे जुटाने के लिए फर्नीचर, बर्तन बेचने शुरू किए, बिकते-बिकते मात्र अनिवार्यतम चीजें रह गईं। इस त्याग से औरों की आँखें खुलीं। जनसहयोग प्रारंभ हुआ। बालहित के लिए किए जाने वाले कार्यों की विशाल योजना जब विचारवान लोगों के सामने आई तो उन्होंने भी उससे अत्यधिक प्रभावित होकर खुले दिल से सहायता देनी शुरू की।
भावनाओं के विकास से दुष्कर काम भी सहज पूरे हो जाया करते हैं। सामाजिक सहयोग का परिणाम यह हुआ कि स्विट्जरलैंड के ड्राजेन नामक गाँव में कास्टेस झील के किनारे अनाथ बालकों के लिए सुंदर-सा विद्यालय खुल गया। इसके जन्मदाता त्यागी— तपस्वी अध्यापक पेस्टालजी के नाम पर इसका नाम भी ‘पेस्टालजी डर्फ’ रखा गया। आज भी यह विद्यालय पेस्टालजी के जीवन के पुनीत उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न है।
पेस्टालजी ने विद्यालय के प्रवेश द्वार पर एक बोर्ड लगवाया, जिसमें मोटे अक्षरों में लिखा गया— 'आपका प्रथम कर्त्तव्य संवेदनाओं का जागरण'। निःसंदेह प्रथम कर्त्तव्य को पूराकर आज भी अपने जीवन को व्यापक और परमार्थपरायण बनाया जा सकता है।