एक व्यक्ति नदी के किनारे पहुँचा, आत्महत्या करने। पास ही संत की कुटिया थी। संत सब देख रहे थे। वह कूदने ही वाला था कि संत ने आवाज लगाई— “ठहर”। उसने कहा— "रोको मत! मुझे मरना ही है। जिंदगी बेकार है। यहाँ कुछ भी नहीं है। परमात्मा भी मुझसे रूठ गया है, सबको निहाल कर दिया है, मेरे पास कुछ भी नहीं है।" संत ने कहा— "आज रात ठहर जा। चाहे तो कल मर जाना।” संत की बात मानकर वह रात भर ठहर गया। प्रातः संत उस व्यक्ति को लेकर राजमहल पहुँचे। सारा वृत्तांत सुनाया, फिर उसे आकर कान में बताया कि "राजा साहब को तुम्हारी आँखों की जरूरत है। एक लाख रुपया दे रहे हैं, एक आँख का। दोनों दे दोगे तो दो लाख देने को तैयार हैं।" उसने कहा— "मैं आँखें बेच दूँ, फिर देखूँगा काहे से।" संत फिर राजा के पास गया। थोड़ी देर में लौटकर आया और बोला— “यदि कान भी देते हो तो चार लाख रुपया देने को तैयार हैं और नाक देनी हो तो पाँच लाख।" उसने कहा— “क्या मतलब”, “मैं आँख, कान, नाक बेच दूँ? उसने कहा— “सम्राट हाथ-पैर तक भी खरीदने को तैयार है। तू चाहे तो सबका सौदा तय कर ले, दस लाख देंगे।" अब तो वह चकराया कि मात्र शरीर की इतनी कीमत। संत ने कहा— "तूने कभी अकल पसारकर सोचा कि सुरदुर्लभ तन जो तुझे मिला, क्या इस प्रकार बे-अकली से बुरी तरह नष्ट करने के लिए मिला था। लाखों-करोड़ों लोग तुझसे भी गई-बीती स्थिति में होंगे।" मनुष्य की समझ में आ गया, मानव जीवन का महत्त्व। उसने आत्महत्या का इरादा छोड़ा व पुरुषार्थ में जुट पड़ा।