लोकसेवी, सृजनशिल्पी ऐसे हों

February 1990

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यूनान के राजदूत ने भारत सम्राट के गुरु, राष्ट्रनीति के संचालक चाणक्य की विद्वता, कूटनीतिज्ञता तथा सादगी की बात सुनी तो उनसे भेंट करने चल पड़ा। चाणक्य की कुटिया गंगा के किनारे थी। वह राजदूत तलाश करता हुआ गंगातट पर पहुँचा, उसने देखा— एक बलिष्ठ व्यक्ति गंगा में नहा रहा है। थोड़ी ही देर बाद वह निकला। उसने पानी का घड़ा उठाया, अपने कंधे पर रखा और चल दिया।

राजदूत ने कहा—“क्यों भाई! मुझे आचार्य चाणक्य के निवास स्थान का पता बताओगे?”

उसने घास-फूस से निर्मित कुटी की ओर हाथ से संकेत कर दिया।

राजदूत को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मैंने भारत के प्रधानमंत्री का निवास पूछा था और इसने कुटिया की ओर इशारा कर दिया। भला प्रधानमंत्री कुटिया में क्यों रहने लगा? विश्वास नहीं हुआ; काफी देर खड़ा रहा; सोचा; कोई दूसरा निकले तो पूछूँ।

इसी बीच एक अन्य व्यक्ति गुजरा। उससे उसने वही प्रश्न दुहराया।

श्रद्धासिक्त भरे स्वर में उसने कहा— "सामने जो कुटिया दिख रही है, आचार्य उसी में रहते हैं।"

“चलो देख लेते हैं", सोचकर उसके कदम कुटिया की ओर मुड़ गए।

पहुँचकर देखा— कुटिया का द्वार खुला है। एक कोने में थोड़े से बरतन रखे हैं। एक किनारे पर जल का वही घड़ा, जो गंगा से कुछ देर पहले लाया गया है। एक चटाई और मोटे-मोटे ग्रंथों का संग्रह।

इसके सबके बीच कुछ और था। वह था— एक साँवला व्यक्ति, जो टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में कुछ लिख रहा था।

“मैं प्रधानमंत्री चाणक्य से मिलना चाहता हूँ”— राजदूत ने कहा।

आवाज ने ध्यान भंग किया। लिख रहे व्यक्ति ने लेखनी रखी; जल रहे दीपक से दूसरा दीपक जलाया, पहला बुझा दिया। इस कार्य को करते उसके मुख से शालीन वाणी निकली— “स्वागत है अतिथि आपका। मुझे ही चाणक्य कहते हैं।”

राजदूत के नेत्र आश्चर्य से खुले रह गए। इस व्यक्ति से तो अभी-अभी स्नान के बाद भेट हो चुकी थी। लंबी-सी चोटी, साधारण-सी धोती पहने लेखन में मग्न किसी देश का प्रधानमंत्री भी हो सकता है? स्वावलंबन का यह अनोखा जीवन कि पानी तक स्वयं भर कर लाता है। जी हुजूरी करने वाले नौकरों-चाकरों का नामोनिशान नहीं। फर्नीचर-अलमारियों का सर्वथा अभाव। वह खड़ा देखता रह गया। फिर भी कुछ पूछना बाकी था।

सो उसने कहा— "एक बात पूछना चाहता हूँ।" "कहिए! दीपक जलाने-बुझाने का क्या रहस्य है?" “रहस्य कुछ नहीं।” आचार्य ने मुसकराते हुए कहा— “पहले वाले में राजकोष का तेल था, दूसरे वाले में मेरी आय का।”

“आप की आय का स्रोत क्या है?" “पुस्तकों के लेखन और अध्यापन से गुजारे भर का ले लेता हूँ। छात्र जो देते हैं उसमें से आवश्यक अंश लेकर बाकी गरीब छात्रों के लिए खर्च कर देता हूँ।”

“ओह! तो गुजारे के लिए भी राजकोष पर निर्भरता नहीं।” “और कोई जिज्ञासा है?”

"नहीं! आपकी जीवन-प्रणाली ने मेरी सारी जिज्ञासाएँ शमन कर दीं, आचार्य! मैं धन्य हुआ।"

जब वह अपने देश लौटा तो लिखा— “भारत में राष्ट्रनिर्माण का रहस्य मिला। राष्ट्रनिर्माता वही बन सकता है, सादगी और संयम जिसके जीवन के अविभाज्य अंग हों। जो भी देश और समाज, जब कभी उन्नति करेगा, ऐसे ही निर्माताओं के बल पर करेगा। अतीत का गौरव पुनः स्थापित हो, इसके लिए ऐसे ही राष्ट्रनिर्माता के रूप में स्वयं को गढ़ना होगा।”



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