1942 की एक सर्दीली सुबह रंगून के एक विशाल प्रांगण में हजारों लोग जमा थे, इन सबके बीच एक ऊँचे मंच पर खड़े थे— नेता जी सुभाष चंद्र बोस। उन्होंने बोलना शुरू किया— "मित्रो! बड़े काम बड़ा त्याग चाहते हैं। समय हमेशा एक-सा नहीं रहता। यों व्यक्ति की जिंदगी में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण क्षण आते हैं, जो सारी जीवन की धारा में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दें; पर युगों में एक आध बार कभी-कभी ऐसी विलक्षण घड़ियाँ आती हैं, जो एक नहीं, दो नहीं, पाँच-दस नहीं; वरन समूची मानव जाति के भाग्य विधान में चमत्कारी उलट-फेर कर दें। इस उलट-फेर के लिए वांछित है, आप सबका समय और धन।"
उन्होंने एक नजर उपस्थित जनसमूह की ओर डाली, फिर वाणी को गति दी— "यों ही फालतू गपशप, ताश-चौपड़ में बरबाद होने वाले समय को समाज तुमसे माँग रहा है। पान-तंबाकू, चाय-सिगरेट में फूँकने-बहाने वाले धन के लिए राष्ट्रदेवता झोली पसार रहा है। क्या तुम उसे भीख दोगे? बलि के दरवाजे पर स्वयं विराट पुरुष वामन होकर आया है? कौन उसकी झोली भरकर महादानियों में अपना नाम लिखाएगा? कौन इतिहास सृजेता बनेगा?"
सुनने वालों के समक्ष उन्होंने अपने गले से एक साधारण माला उतारी। उसे हिलाते हुए कहा— "यह मेरा हृदयहार है, मेरे सीने में उमड़ने वाली पीड़ा का सहभागी। कौन इसे अपनाएगा; पर मुफ्त नहीं, कीमत चुकानी होगी— समय और धन की कीमत।"
सुनने वालों ने बोलियाँ लगानी शुरू की। पहली बोली पढ़ी एक लाख, दूसरी बोली आई दो लाख फिर बोली बढ़ी तीन-चार पाँच-सात से होती हुई नौ लाख तक बढ़ती चली गई। बोली में अब ठहराव था।
इस दृश्य को देखकर ऐसा लगता था कि सीता की खोज ने समुद्र किनारे बैठी वानर सेना के सदस्य दस-बीस पचास-सत्तर नब्बे योजन समुद्र लाँघने की बात कर रहे हैं; पर समुद्र तो सौ योजन था, कौन लाँघेगा? एक ठहराव आ गया।
खुसफुसाहट चलती रही। एक साधारण-सा युवक भीड़ को लाँघकर नेता जी के सामने आ पहुँचा, उसने बोली लगाई— “मेरा सब कुछ।”
नेता जी मंच के नीचे कूद पड़े, उसके गले में माला पहनाई और सीने से चिपटा लिया। दोनों की आँखों में आँसुओं का अविरल प्रवाह था।
खुसफुसाहट के अस्फुट स्वरों को भाँपकर नेता जी ने कहा— "इस युवक के पास नौ लाख नहीं है, यही कहना चाहते हैं? तो जान लीजिए धन की अपेक्षा समय कीमती है। धन और कुछ नहीं, समय का ठोस भौतिक रूप है। इसने सब कुछ देकर मेरी माला नहीं, स्वयं मुझको खरीद लिया है।"
नेता जी के स्वरों से लग रहा था, जैसे हनुमान से राम कह रहे हों। 'सुनु कपि तेहि उरिन मैं नाहीं'। "मेरी पीड़ा में सहायक युवक क्या नाम है तुम्हारा?" "मोहन सिंह।"
“मोहन सिंह”— उन्होंने दुहराया? "जाओ, गाँव-गाँव घूमो, हरेक से कहो; परिवर्तन के पर्व का समय तुम्हें पुकार रहा है। उन्हें मेरी पीड़ा का एक घूँट पिलाओ, स्वतंत्रता का मर्म सुझाओ, जागृति का शंख फूँक सकोगे, युवक?"
फिर अपने से बोले— “तुम अवश्य कर सकोगे।” सभा विसर्जित हो गई।
वर्षों बाद समय ने फिर पुकारा है। राम अपने हनुमान को, नेताजी मोहन सिंह को, गाँधी अपने जवाहर, पटेल, विनोबा को बेतरह ढूँढ़ रहे हैं। अर्जुन का सारथी फिर अपने प्रिय सखा का रथ हाँकने के लिए आतुर है। कहाँ है ये सब भक्त, जिन्हें भगवान ढूँढ़ रहा है? ये और नहीं, हमारे अंतर में छुपे बैठे हैं; और कोई नहीं, हम स्वयं हैं। अपने को पहचानें, कर्त्तव्य को पूरे करने के लिए महाकाल की झोली भरने के लिए पैर बढ़ाएँ।