उपयुक्त आहार— जीवंत आहार

February 1990

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आयुर्वेद ग्रंथों में वर्णित है कि प्राचीनकाल के ऋषि-मनीषियों का आहार प्रायः कंद-मूल, फल या कच्चा अन्न हुआ करता था। उसे ग्रहण करके वे पूर्ण स्वस्थ, दीर्घजीवी एवं ओजस्वी, तेजस्वी बने रहते थे। ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल में भी इसी तरह उल्लेख मिलता है कि अनाजों को उनके प्राकृतिक रूप में खाकर लोग सौ वर्ष की आयु पा लेते थे। आज भी कच्चा आहार उतना ही उपयोगी हो सकता है, जितना कि पहले कभी था। आहार-विहार में परिवर्तन करके न केवल लंबी अवधि तक शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाए रखा जा सकता है, वरन जीवंत अनधान्यों, फलों, सब्जियों का उपयोग करके कायाकल्प जैसा नवजीवन प्राप्त किया जा सकता है।

जीवंत आहार की प्रमुख विशिष्टता यह है कि शारीरिक परिपुष्टता एवं मानसिक विकास के लिए जिन आवश्यक पोषक तत्त्वों, एन्जाइमों, विटामिनों आदि की आवश्यकता पड़ती है, वह इसमें प्रचुरता से विद्यमान रहते हैं। आग पर पकाए जाने पर इनमें से अधिकांश पाचक तत्त्व नष्ट हो जाते है। परिणामस्वरूप अच्छी तरह न तो उनका पाचन हो पाता है और न रक्त में विलय ही। कच्चे आहार से स्वस्थ आँतें अपने अंदर स्थित बैक्टीरियल फ्लोरा के साथ उक्त तत्त्वों के माध्यम से लगभग एक हजार एन्जाइमों एवं विभिन्न विटामिनों को प्राप्त कर लेती हैं। प्राकृतिक चिकित्साविज्ञानियों के अनुसार कच्चे आहार की तुलना में पका हुआ भोजन स्वादिष्ट तो होता है, पर उच्च तापमान के कारण उसमें सन्निहित प्रोटीन एवं शर्करा दुष्पाच्य बन जाती है। खनिज लवण, एन्जाइम तथा विटामिन पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं तो चिकनाई एवं कार्बोहाइड्रेट अधिक ताप के कारण विघटित होकर विष का काम करने लगते हैं। यही कारण है कि पौष्टिक पकवान लेते रहने पर भी पेट खराब रहता है। उसकी पूर्ति के लिए कृत्रिम विटामिनों, खनिजों का सहारा लेना पड़ता है। कच्चे एवं अंकुरित अनाजों को आहार में सम्मिलित कर लेने पर इस व्यथा से सरलतापूर्वक छुटकारा पाया जा सकता है।

सुप्रसिद्ध चिकित्साविज्ञानी डॉ. राल्फबर्चर ने नैसर्गिक जीवंत आहार एवं अंकुरित अन्नों की उपादेयता पर गंभीर खोजें की हैं और पाया है कि इनमें एक विशिष्ट प्रकार की पोषक क्षमता विद्यमान होती है। उनके अनुसार अंकुरित अन्नों को खाने से हमें छः प्रकार के औषधीय तत्त्व प्राप्त होते हैं, जो रोगकारक विषाणुओं को नष्ट करने के साथ ही जीवनीशक्ति का भी अभिवर्द्धन करते हैं। इसके 92 प्रतिशत तत्त्वों को आँतें अवशोषितकर उसे रक्त, मांस मज्जा आदि के निर्माण योग्य बना देती हैं, जबकि पके हुए आहार का मात्र 35 प्रतिशत भाग ही जीवनीशक्ति बढ़ाने वाली प्रक्रिया में प्रयुक्त हो पाता है। अंकुरित अन्नों एवं हरी सब्जियों में पाए जाने वाले तत्त्व शारीरिक कोशिकाओं एवं तंतुओं के खनिजीय और रासायनिक संतुलन को स्थिरता प्रदान करते है। फलतः असंतुलनजन्य बीमारियों का शमन स्वमेव हो जाता है। इससे न केवल मानसिक तनाव दूर होता हे, वरन कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम, मैग्नीशियम जैसे तत्त्वों की समुचित उपलब्धता के कारण हृदय की कार्यक्षमता भी बढ़ जाती है। उसके स्नायुतंत्र सशक्त एवं सक्रिय बने रहते हैं।

मनुष्य प्रकृतितः शाकाहारी है। पहले वह अपना आहार नैसर्गिक रूप में ही ग्रहण करता था। पकाकर खाना तो उसने सभ्यता के विकास के साथ सीखा है। यही कारण है कि आँतें अब पके हुए आहार की अभ्यस्त बन गई हैं; किंतु इससे पर्याप्त पोषक तत्त्व न मिलने के कारण हममें से अधिकांश को समयपूर्व जरा-जीर्णता के साथ ही अनेकानेक बीमारियों का भी शिकार बनना पड़ रहा है। प्रख्यात आहारविद् हेन्स एण्डरसन के कथनानुसार यदि इस भूल को सुधारकर प्राकृतिक आहार की तरफ लौटा जा सके तो कोई कारण नहीं कि स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन का लाभ न उठाया जा सके। अनुसंधानपूर्ण अपनी कृति— 'द न्यू फूड थेरेपी' में उनने कहा है कि, "वैज्ञानिक खोजों एवं परीक्षणों द्वारा अब यह सिद्ध हो गया है कि कच्चे अन्न, फल एवं सब्जियाँ सूर्य किरणों की शक्ति को अवशोषितकर अपने बीजकोषों में अवधारित कर लेती हैं। प्राकृतिक रूप में इन्हें खाने पर उस ऊर्जा-भंडार को हमारी आंत्र कोशिकाएँ पीछे आत्मसात कर लेती हैं और उसे पचाने में भी उन्हें को विशेष श्रम नहीं करना पड़ता।"

हरी शाक-सब्जियों एवं अंकुरित अन्नों के क्लोरोफिलयुक्त रस को ‘ग्रीनब्लड’ के नाम से संबोधित किया गया है, इसमें पोषण प्रदान करने एवं स्वास्थ्यवर्द्धन करने वाले सभी प्रकार के तत्त्वों को समावेश होता है। खून को शुद्ध करके रक्त-कणों की अभिवृद्धि करने में उक्त रस की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। चिकित्साविज्ञानी डॉ. ब्रिशर इसे 'सूर्यशक्ति केंद्रित’ मानते हैं और कहते हैं कि, "क्लोरोफिल के अणु मानव रक्त में पाए जाने वाले हीमोग्लोबिन कणों से बहुत कुछ समानता रखते हैं। यही कारण है कि इसके सेवन से रक्त-कणों की संख्या में असाधारण रूप से अभिवृद्धि देखी जाती है। हरे रस का नियमित सेवन रक्त अभिसंचरण की प्रक्रिया को संतुलित, हृदयतंत्र को सशक्त बनाता है। श्वसनतंत्र, गर्भाशय एवं आँतों के लिए इसे विशेष लाभकारी पाया गया है। कायिक निर्माण में काम आने वाले अमीनो एसिड की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदानकर पुष्टिवर्धन का कार्य भी ग्रीनब्लड से सहज संभव बन पड़ता है। इन्हीं गुणों के कारण इसे एक उत्तम टॉनिक माना गया है।

नोबेल पुरस्कार विजेता विख्यात चिकित्साशास्त्री डॉ. फिशर ने रक्ताल्पता दूर करने में अंकुरित अन्नों के जवारे का सफल प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त आंत्रशोध, त्वचा रोग, पेट में अल्सर, पायरिया जैसे रोगों से ग्रस्त 1200 व्यक्तियों के उपचार में भी इससे उन्हें पर्याप्त सहायता मिली है। उनके अनुसार— अंकुरों के रस में अब तक सौ से अधिक जीवन-रक्षक तत्त्व खोजे जा चुके हैं। परीक्षणोपरांत उनने अंकुरित गेहूँ को पूर्ण आहार बताया है और कहा है कि एक ग्राम अंकुर में जितने अधिक पोषक तत्त्व पाए जाते हैं, उसकी तुलना में 25 गुनी अधिक शाक-सब्जियाँ भी मिलकर उसकी पूर्ति नहीं कर सकतीं। शरीर के अंदर एकत्र दूषित पदार्थों को दूरकर रस-रक्त का परिशोधन-अभिवर्द्धन करने में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

धान्यों के अंकुर पोषक तत्त्वों और औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण दुर्बलता दूर करने के साथ-साथ शरीर में रोग-प्रतिरोधी क्षमता का भी विकास करते हैं। इस संदर्भ में अमेरिका की महिला चिकित्साविज्ञानी डॉ. एन. विग्मोर ने गहन अनुसंधान किया है। प्राकृतिक चिकित्सा संबंधी संस्था— 'हिपोक्रेट हेल्थ इंस्टीट्यूट' में वह अपने मरीजों को जवारे के रस से उपचार करती हैं। उनके अनुसार— जीवंत आहार से कितने ही रोगियों को नवजीवन मिला है। इस प्रयोग के लिए उनने गेहूँ को सबसे अधिक उपयोगी पाया है। इसके अंकुरों में कैंसररोधी ‘लेट्राइल' नामक एन्जाइम बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है। डॉ. लेट्राइल के अनुसार— मूलबीज में जितनी मात्रा में लेट्राइल होता है, अंकुरित अन्नों एवं कच्ची सब्जियों में यह सौ गुना अधिक पाया जाता है। इसी तरह सेम के बीजों को अंकुरित कर लेने पर उसमें सन्निहित ‘इन्सुलिन’ कई गुना अधिक बढ़ जाता है। मधुमेह रोगियों के लिए अंकुरित सेम बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ है।

आहारविज्ञानियों का कहना है कि, "किसी अन्न-धान्य, दाल आदि के अंकुर अपने आरंभिककाल में विटामिनों के भंडार होते हैं। इनमें विटामिन बी कांप्लेक्स, ‘सी', 'ई', तथा 'एफ' प्रचुर मात्रा में विद्यमान होते हैं। पाँच दिन के अंकुरित गेहूँ एवं जई में सामान्य दोनों की तुलना में पाँच सौ गुना अधिक जीवन सत्वों का बाहुल्य देखा गया है। उसी तरह प्रोटीन की मात्रा एवं विविधता में भी अभिवृद्धि पाई गई है। शुरू के दिनों में इस अंकुर में प्रायः स्टार्च भर होता है, किंतु जैसे-जैसे वे बढ़ते जाते हैं, स्टार्च तुरंत शक्ति प्रदान करने वाले सुगर में बदला जाता है। उनके अनुसार— अंकुरित अन्नों को सदैव कच्चा ही खाना चाहिए। उबालने पर उनके उपयोगी तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। क्लोरोफिलयुक्त अंकुरित आहार तैयार करने के लिए उसे कपड़े से ढककर हलके धूप में रखना पड़ता हैं। इससे उनमें हरापन आ जाता है, जिसे सलाद के रूप में अथवा पीसकर घोल के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

चिकित्साविज्ञानी डॉ. इयार्प थामस का कहना है कि, "अंकुरित अन्न एवं उनके जवारे निश्चित रूप से नवयुग के लिए उपयुक्त आहार— औषधि हैं। रोगनाशक एवं आरोग्य-संवर्द्धन की दुहरी क्षमता से संपन्न इस आहार को उनने सभी आयु वर्ग के व्यक्तियों के लिए उपयुक्त पाया है। अशक्त रोगी भी जीवंत आहार से स्वस्थ हो जाते हैं। इस प्रयोग में ऐसे लोगों को आरंभ में गेहूँ का पानी दिया जाता है, जिसे एक कप गेहूँ के स्वस्थ बीजों को दो कप पानी में 24 घंटे भिगोकर रखने पर तैयार किया जाता है। प्रतिदिन दो-तीन गिलास इस पानी को छानकर देते रहने पर शरीर का वजन भी बढ़ता है, स्फूर्ति भी आती है, जीवनीशक्ति भी बढ़ती है।"


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