प्रवाह को मोड़ने-मरोड़ने की आवश्यकता

February 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महत्त्वपूर्ण अवसरों पर स्वजनों-संबंधियों को ही बुलाया जाता है और उनसे अभिनव परिस्थितियों में सहकार करने की आशा की जाती है। जन्म-मरण जैसी घटनाओं में स्वजन-संबंधी ही प्रमुख रूप से दौड़े आते हैं। विवाह-शादियों के अवसर पर भी उन्हीं की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती है। दुर्घटना घटित हो जाने पर भी वही परिकर दौड़ा-दौड़ा आता है। बीमारी, मुसीबत में भी उन्हीं से कुछ आशा-अपेक्षा की जाती है। साथ ही यह भी होता है कि उपहार बाँटते समय भी उन्हीं का प्रमुख रूप से ध्यान रखा जाता है। जीवन भर की कमाई भी उत्तराधिकार में कुटुंबियों, परिजनों के लिए ही प्रसन्नतापूर्वक छोड़ी जाती है, किंतु पड़ोसी-मुहल्ले वाले जान-पहचान होने पर भी प्रायः उदासीनता ही धारण किए रहते हैं। लोकाचार के रूप में ही उथली भाव-संवेदना का दिखावा करते हैं। अपने-परायों के बीच यह अंतर कहीं भी देखा-पाया जा सकता है।

भगवान के भी कुछ स्वजन-संबंधी होते हैं और कुछ मात्र परिचित ही। इन परिचितों में से कुछ तो कौतुकी, मसखरे जैसे होते हैं। कुछ चापलूसों, चाटुकारों को आगे-पीछे फिरते तो देखा जाता है; पर उनकी नीयत केवल यही होती है कि किसी प्रकार दाँव चले, हाथ लगे और प्रशंसा के पुल बाँधने के बदले जो भी हाथ लगे, उसे झपटकर चंपत बना जाए। इस स्तर के लोग प्रदर्शन तो स्वजनों से भी बढ़कर करते हैं, पर परीक्षा का समय आते ही प्रकट हो जाता है कि इन प्रपंचियों का दिखावा मात्र ठगने, बहकाने और फुसलाने भर का था। प्रसंग जब सहयोग देने और सहायता करने का आता है, तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं। मात्र उपहार बँटने और कुछ अपने हाथ लगने की फिराक में ही अपने छद्म द्वारा कुछ का कुछ जताते रहते हैं। सर्वथा पराए होने पर भी अपनेपन की कसमें खाते हैं, पर झूठे और सच्चे का अंतर प्रायः समझदारों द्वारा पहचान ही लिया जाता है। अंतर्यामी परमात्मा को वंचना और विडंबना के जंजाल में फँसा लेना, उन बहेलियों के लिए भी सरल नहीं होता, जो चिड़ियों और मछलियों को आरंभिक चारा दिखाने की प्रवंचना में फँसा, उनका कचूमर निकाल देते हैं।

लोगों को भयंकर और भारी भ्रम इस बात का है कि भगवान वह मुर्गी है, जो सोने का अंडा रोज देती और दबाव बनाने वाले की दरिद्रता दूर करती रहती है। उससे माँगने और पाने के अतिरिक्त तथाकथित भक्तजनों की और कोई मनोकामना होती ही नहीं। इसे पूरी करने के लिए वे अधिक-से-अधिक इतना ही कर सकते हैं कि प्रशंसा के बाँधने वाले स्तवन करें, नामजप की माला और ऐसे ही कुछ अन्य चोंचले-ढकोसले खड़े करे, जिससे बे-अकल भगवान से उसकी झोली खाली कर ली जाए। धूर्त और मूर्खों के बीच प्रायः इसकी शतरंज खेली जाती रहती है। उसका कुछ परिणाम भी होता है क्या? इस संबंध में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। कभी-कभी अंधे के हाथ बटेर भी अनायास ही लग जाती देखी गई है।

किंतु भगवान को इतना ओछा समझना उपहासास्पद है। राई-रत्ती जैसे पूजा-पत्रों कें, छिट-पुट उपहार और प्रशंसा के गीत गाने, नाचने जैसे मनुहारकृत्य क्या वस्तुतः भगवान का अनुग्रह, वरदान प्राप्त कर सकने में समर्थ हैं? इसका अनुमान एक निरीक्षण-परीक्षण से लगाया जा सकता है कि मंदिरों के लाखों पुजारी और भजनानंदियो भजन की विशालकाय जमाते किस स्तर का गुजारा कर रही हैं, इसे बारीकी से देखा, परखा और जाना जाए। जो प्रायः पूरा समय इस तथाकथित भक्ति-भावना में गुजार देते हैं, उनका व्यक्तित्व तक यदि प्रखर, प्रतिभावान समर्थ और सेवाभावी सहृदय स्तर का न बन सका, तो यह कैसे विश्वास किया जाए कि दस-बीस मिनट उस विडंबना की चिह्नपूजा करने वाले अपनी आकाश-पाताल जैसी मनोकामनाओं को पूरी करा लेने में सफल हो जाएँगे।

देखना उन महामानवों की ओर है, जिननें भले ही पूजा-पाठ कम किया हो, पर अपनी जीवनचर्या में अध्यात्म तत्त्वज्ञान को सही रूप में समाविष्ट किया और आत्मसंतोष के परलोक एवं सम्मान के इहलोक में पूरी तरह सफल सिद्ध हुए। ऐसे लोगों के चिंतन, चरित्र, व्यवहार में पूरी तरह भगवान ओत-प्रोत रहा और उन्हें अपने सान्निध्य का, उपयोगी आदान-प्रदान का प्रत्यक्ष आभास कराता रहा। ऋषियों, तपस्वियों, मनीषियों, महामानवों, लोकसेवियों, उदात्त, संयमशीलता के साधकों को ही सच्चे अर्थों में भक्त माना जा सकता है और उन्हें इस अवलंबन के सहारे पूरी तरह कृत-कृत्य हुए देखा जा सकता है।

धुलाई के बाद ही रँगाई का उपक्रम बन पड़ता है। गलाई के बाद ही ढलाई संभव होती है। आदर्शवाद के क्रियांवयन का आँवा ही उस ऊर्जा से ओत-प्रोत होता है, जिसमें तपकर ईंटों से लेकर मिट्टी के बर्तनों तक की मजबूती तथा उपयोगिता देखते बन पड़ती है। नदियों में उतना ही पानी भरा और बहता रहता है, जितनी कि उनकी गहराई होती है। व्यक्तित्त्ववान हुए बिना कोई आदमी भक्त कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता। यह उदारचेता, आदर्शवादी और दृढ़ प्रतिज्ञ लोगों के द्वारा ही बन पड़ने वाला तपस्वियों जैसा पुरुषार्थ है, जिसे देने वाले की भावना हृदयंगम करते हुए भगवान के द्वार पर पहुँचने और प्रवेश पाने का अवसर मिलता है।

यों भगवान का दरबार सुपर मार्केट की तरह मनचाही वस्तुएँ उचित मूल्य देकर खरीदने के लिए हर किसी के लिए हर समय खुला रहता है, पर किसी समय विशेष के साथ जुड़े हुए सुयोग को अपने ढंग का अनुपम सौभाग्य कहा जा सकता है। प्रतिस्पर्धाएँ कभी-कभी ही होती हैं और उनमें जीतने वालों को तभी लाभ मिलता है, जब निर्धारित समय पर वे समुचित तैयारी के साथ उसमें सम्मिलित होते हैं। अफसरों का चुनाव करने के लिए कभी-कभी ही बोर्ड बैठता है। छात्रवृत्ति पाने की प्रतिस्पर्धाएँ भी समय विशेष पर ही होती हैं। उस स्तर के सुयोग हर कभी नहीं बने रहते। ऐसा सुयोग इन्हीं दिनों है कि ईश्वर की इच्छा, आवश्यकता और माँग के अनुरूप भक्तजन अपने को प्रस्तुत और समर्पित करें और बदले में ऐसा उपहार पाएँ, जो सहस्राब्दियों बाद कभी आता है और साहस दिखाने वालों को अजर-अमर कर जाता है।

यह युग-परिवर्तन की वेला है। स्रष्टा को अपना अभीष्ट प्रयोजन पूरा करना है। नवयुग अवतरण की प्रतिज्ञा से वचनबद्ध सत्ता इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य की संरचना करने जा रही है। इससे पूर्व का प्रस्तुत समय युगसंधि के नाम से जाना जाता है। इन दिनों दैवी प्रयोजन में सहयोग कर सकने वालों की आवश्यकता पड़ रही है। कारण कि भगवान निराकार होने के कारण प्रायः मनुष्य शरीरधारियों से अपने प्रयोजन पूरे कराते हैं। जो उसके लिए कटिबद्ध रहते हैं, वे हनुमान और अर्जुन की तरह धन्य बन जाते हैं। समय निकल जाने पर उसके लिए बहुत पीछे जगने वालों को उस लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। स्वतंत्रता सेनानी उच्च पद और उपहार उपलब्ध कर सके। अब समय निकलने पर कोई जेल जाने का प्रस्ताव करे, तो वह लाभ नहीं मिल सकता, जो समय पर जग पड़ने वाले पा सके। ईश्वर को जो देना था, वह मनुष्य जन्म के रूप में दे चुका, अब उसी का सदुपयोग करके अभीष्ट साधन और वैभव उपलब्ध करना ही सीधा मार्ग है। इस उपलब्धि के बाद अनेकानेक मनोवांछाओं को पूरा करने के लिए गिड़गिड़ाना अपनी ही दीनता और हीनता का परिचय देना है। इससे आगे तो जो पाया था, उसका ब्याज समेत ऋण चुकाना ही शेष रह जाता है। यही धर्म है, यही कर्म और यही औचित्य।

अब आगे दिशाधारा मोड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। भक्तमंडली, स्वर्गमुक्ति और ऋद्धि-सिद्धि की दुनिया में उड़ानें भरती है। पूजा भर से मनोवांछाएँ पूरी कराने वाले सनकियों की अपनी दुनिया है। लोक-मानस— परिष्कार, चरित्रनिष्ठा और समाज की अभिनव संरचना पर किसी का ध्यान नहीं। होना यह चाहिए कि भावना, श्रम-साधनों का उपयोग ऐसे केंद्रबिंदु पर एकत्र किया जाए, जिससे समाजसेवियों की संख्या और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन-प्रक्रिया को प्राचीनकाल की तरह अब फिर नया श्रेय-सम्मान मिल सके। यही है धर्म-धारणा और ईश्वरीय प्रेरणा की अभिनव दिशाधारा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118