महानता की पहली शर्त—“सादगी”

February 1990

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“नहीं इतना बहुत अधिक है”— व्यवस्थापक की मेज के दूसरी ओर बैठे व्यक्ति ने कहा। कहने वाले की वाणी में जितनी अधिक सरलता थी, सुनने वाले के चेहरे पर उससे कहीं अधिक आश्चर्य के भाव थे।

प्रौढ़ आयु के व्यवस्थापक ने सामने बैठे नवयुवक को एक बार सिर से पैर तक घूरा। साधारण मोटे सूत का कुर्ता, ऐसी ही धोती, पैरों में टायर की सस्ती चप्पलें। कहीं से भी धनी नहीं दिखता, फिर क्यों मन में एक-पर-एक भाव आ-जा रहे थे?

एक बार पुनः सामने रखी मार्कशीटों प्रमाण पत्रों को उलटा-पलटा। शुरू से लेकर आखिर तक प्रथम श्रेणी के अंक। योग्यता भी कम नहीं— एम. ए. एल. टी. फिर बात क्या है?

मन की ऊहापोह ने पूछने पर विवश किया— “आप निर्धारित वेतन से कम क्यों लेना चाहते हैं?" जवाब मिला— "भाई मुझे दो धोतियाँ, दो कुर्ते तथा सामान्य भोजन की जरूरत है। मैंने खूब जोड़-घटाकर देख लिया है, सब मिलाकर 30 रुपए में मेरा काम चल जाता है। इससे अधिक क्या करूँगा।"

“30 रुपये, अर्थात दिए जा रहे वेतन से आठवें भाग से भी कम जो भी हो।”

“पर पूरा क्यों नहीं लेते हैं”— पूछने वाले ने फिर कुरेदा। "देखिए! अधिक रुपए का मतलब है— अधिक विलासिता। विलासिता न हो तो उसे संग्रह कह लीजिए, कृपणता कह लीजिए। मतलब एक ही है— घनीभूत संकीर्णता और निष्ठुरता।" सुनने वाला दंग था। "अधिक धन को अच्छे कामों में भी लगाया जा सकता है" व्यवस्थापक ने एक बार फिर कहा।— "निर्वाह भी प्रधानाचार्य के स्तर के अनुरूप होना चाहिए।"

"इन दो विरोधी बातों की कोई संगत नहीं। धन को अच्छे काम में लगाने की बात ठीक है; पर एक से अधिक तनख्वाह लेने का मतलब है, दूसरों के मन में लालच पैदा करना। उन्हें भागने के लिए विवश करना, इसलिए जिम्मेदार आदमी की तनख्वाह कम होना ही ठीक है। रही बात प्रधानाचार्य के स्तर की, तो उसका निर्वाह स्तर नहीं, बल्कि जीवन स्तर अन्य सभी की तुलना में अधिक होना चाहिए। जीवन स्तर के ऊँचे होने का मतलब— व्यक्तित्व को अधिकाधिक सद्गुणों से युक्त होना। इस संबंध में मैं प्रयत्नशील हूँ।”

व्यवस्थापक सुनकर हतप्रभ रह गए। एक साधारण तबके का आदमी, जिसका बचपन माँ-बाप के बिना बीता। शुरू से अब तक कष्ट झेलता चला आ रहा है। ऐसी स्थिति में इतनी निस्पृह और उन्नत मानसिकता। उन्होंने रुककर कहा— “एक बात पूँछू।" "पूछिए?" "गरीबी में रहते हुए ऐसी त्यागवृत्ति मन में कैसे पनपी"? वे बोले— “मन में भावश्रद्धा उमग पड़े तो गरीब जुलाहे कबीर खुद भूखे रहकर जैसे-तैसे कइयों भूखों का पेट भर सकते हैं और यदि अंदर निष्ठुरता भरी पड़ी हो तो एक धनकुबेर भी अपने आश्रितों-नौकरों को भूखों मरने पर विवश कर सकता है। संवेदना उपजे तो सादगी आए बिना रह ही नहीं सकती।”

ये प्रधानाचार्य थे— श्री दीनदयाल उपाध्याय। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक समर्पित कार्यकर्त्ता, जिन्हें पाकर समाज-देश ही नहीं मानवता धन्य हो गई।


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