ब्रह्ममुहूर्त्त को साधना का काल माना गया है। घटती-मिटती-हटती तमिस्रा और तेजी से दौड़ते आ रहे नवप्रभात के क्षणों में अर्जित की गई ओजस्विता और प्रखरता की सिद्धियाँ, नए दिन के नए प्रभात का आनंद सौ गुना बढ़ा देती है। जब ब्रह्मवेला की व्यापकता युगों के दायरे में फैल गई हों। उस समय, जबकि बुद्धिवाद की घटती निशा और भाव-संवेदनाओं का प्रभात अपने मिलन बिंदु पर आ पहुँचे हों, जीवन-साधना में सक्रियता और तन्मयता अधिक हो जाती है।
प्रत्येक साधना का एक ही परिणाम है— सिद्धि। जीवन-साधना भी इसका अपवाद नहीं है। सिद्धियाँ यह बताती हैं कि साधना सही क्रम में और ठीक दिशा में गतिमान है। यदि इन्हें साधना की प्रामाणिकता का मानदंड माना गया हो तो आश्चर्य क्या? जीवन-साधना के मानदंडों के रूप में हमने चित्र-विचित्र ख्याल बना रखें हैं। ख्यालों के अनुरूप ख्वाब देखे जाते हैं, सपने संजोए जाते हैं। सिद्धियाँ क्या हैं? इस प्रश्न के बारे में अधिकांश के जवाब होंगे— पानी पर चलना, आग पर दौड़ना, आकाश में उड़ना और न जाने कितनी ऐसी अनेकों विलक्षण बातें सुनने को मिलेंगी।
यदि यही प्रश्न लेकर हम ऋषिप्रणीत शास्त्रों के पास जाएँ तो प्राप्त होने वाला उत्तर साफ यह कर देता है कि सिद्धियाँ व्यक्तित्व विकास की सफल प्रक्रिया के चिह्न हैं। ये क्या हैं? और कितने हैं? के उत्तर में महर्षि कपिल अपने सांख्य दर्शन के तीसरे अध्याय के 44 वें सूत्र में कहते हैं— “ऊहादिभिः सिद्धिरष्टधा।" इन आठों का और खुलासा करने पर मालूम होता है, पहली सिद्धि है— 'ऊह' अर्थात युक्तिपूर्ण चुनाव की योग्यता। जिसे भले और बुरे में भले को चुनकर भलाई की राह पर चलना आ गया, समझना चाहिए कि उसे यह पहली सिद्धि मिल गई।
दूसरी है— 'शब्द'। इसका अभिप्राय प्रज्ञा-पुरुष के उन संकेतों से है जो सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं। तीसरी है— 'स्वाध्याय'। इसका तात्पर्य उन पुस्तकों का अध्ययन है जो अपने को समझने में सहायक हो, जिसकी मदद से स्वयं के चिंतन, चरित्र व व्यवहार को सुधारा जा सके। चौथी का नाम है— सुहृत प्राप्ति अथवा 'सत्संग'; ऐसे लोगों का संग, जो हमें समय की पहचान कराएँ, हमारे मनोबल को मजबूत बनाएँ, जिससे जीवन-साधना अविराम चलती रहे। पाँचवीं सिद्धि है— 'दान' अर्थात अपने समय का कुछ भाग स्वयं के अनुभवों को दूसरों को बताने व उन्हें सन्मार्ग की ओर मोड़ने में लगाना। अपने प्रयत्नों से स्वाध्याय और सत्संग की प्रक्रिया को वह तेजी देना, जिससे दूर अनेकों व्यक्ति जीवन-साधना को अपना सकें; स्वयं के व्यक्तित्व को परिपक्व बना सकें।
महर्षि इन पाँचों को प्राथमिक सिद्धियाँ मानते हैं। जिस किसी को ये पाँच सिद्धियाँ मिल जाती हैं, उसे अगली तीन प्राप्त होती हैं, जिन्हें वह चरम और परम बताते हैं। इन तीनों में पहली है— 'भौतिक दुख विघात'। जो जीवन जीने की कला में निष्णात हो गया। जिसे कम में गुजारा करना, मेल-प्रेम से रहना आ गया हो, उसे किस बात का दुःख। दूसरी है— 'दैविक दुःख विघात'। इसका संबंध चिंतन की चमक से है। साफ-सुथरा चिंतन, सुधरी सोच, उन्नत कल्पनाएँ हर किसी को कहीं भी प्रमुदित बनाए रख सकती है। अंतिम सिद्धि वहाँ है, जिसे प्राप्त होने पर मनुष्य सिद्ध बनता है। इसका नाम है— अध्यात्मिक दुखहान। ऐसी स्थिति में जागृत भाव-चेतना समूचे व्यक्ति को अपने प्लावन से ओत-प्रोत कर देती है। व्यक्ति संवेदनशील, सक्रिय और प्रामाणिक बन जाता है।
सांख्यकार कपिल स्वयं इन्हीं सिद्धियों को अर्जितकर श्रेष्ठ-सिद्ध बने थे। उन्हें सर्वोत्तम सिद्ध करार करते हुए गीताकार कहते हैं— “सिद्धानां कपिलो मुनिः।" श्री रामकृष्ण इसका तात्पर्य बताते हुए कहते हैं— "जो जितना नरम हो, जिसकी भावश्रद्धा जितनी अधिक जाग्रत हो, वह उतना ही बड़ा सिद्ध।" कुछ भी हो इसका एक ही अर्थ है— "परिपक्व व्यक्तित्व का स्वामी होना, जो जीवन की चरम परिणति है।"
मनोविद अभय कुमार मजूमदार अपने अध्ययन 'द सांख्य कनसेप्शन ऑफ पर्सनालिटी ' में उपरोक्त तथ्य को प्रामाणिक ठहराते हैं। उनके अनुसार आज के मानव की सारी परेशानियों की जड़ है— उसका दिग्भ्रांत हो जाना। इसका एक ही कारण है— उसका उलझा और बँटा-बिखरा व्यक्तित्व। यदि इसे सांख्यकार के अनुरूप गढ़ लिया जाए, सँवारने-सुधारने में तत्परता बरती जाए तो न केवल एक की; वरन समूची मानव जाति की परेशानियों का निदान तेजी से होता दिखाई पड़ने लगेगा।
सुविख्यात मनीषी प्रो. पीथम. ए. सोरोकिन ने अपने ग्रंथ 'द वेज एण्ड पॉवर्स ऑफ लव एण्ड रिकन्सट्रक्शन ऑफ ह्यूमैनिटी' में 'व्यक्तित्ववान कैसे करेंगे मानवता की नूतन संरचना'? विषय को अच्छी तरह समझाने का सफल प्रयास किया है। उन्होंने मानवी व्यक्तित्व को तीन श्रेणियों में बाँटा है— सब ह्यूमन, ह्यूमन एवं सुपर ह्यूमन। पहले प्रकार के उपमानव, जिनकी प्रकृति निष्ठुर है, समस्याओं को पनपाते और बढ़ाते हैं। दूसरे तरह के मानवीय व्यक्तित्व वालों के अंदर संवेदना तो होती है; पर साहस नहीं होता। इसके अभाव में वे समस्याओं से दुःखी, परेशान भर रहते हैं। उसके निदान के लिए आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
तीसरे अतिमानवीय व्यक्तित्व वाले संवेदनाओं और साहस दोनों के धनी होते हैं। इनके अंदर की बेचैनी साहस से मिलकर कुछ कर गुजरने को विवश करती है। यथार्थ में यही व्यक्तित्व की परिपक्वता का स्तर है। सोरोकिन के अनुसार ऐसों के भीतर मानवमात्र के लिए प्रेम उफनता है। इन्हीं के द्वारा नूतन मानवता की संरचना संपन्न होती है।
इस संरचना को संपन्न करने की घड़ी अब आ पहुँची है। आवश्यकता है कि अग्रदूत जीवन-साधना में प्रवृत्त हों, आठों सिद्धियाँ अर्जित करें। भावी समय व्यक्तित्ववानों का होगा। वही अपनी सार्थकता साबित कर सकेंगे जो प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे सिद्ध हुए हैं। बीतते और आते युगों की ब्रह्मबेला के क्षण यों ही बर्बाद करने के लिए नहीं हैं। स्वयं को गढ़ें, अंतराल की भावश्रद्धा को जाग्रत— विकसित करें। दूसरों को वैसा कर सकने में सहायक सिद्ध हों, जो इन दिनों न कर सके, उन्हें सारी उम्र हाथ मलकर पछताना पड़ेगा।