विद्या के उपासक— आचार्यों के भी महाचार्य

February 1990

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आज के मनुष्य की पीड़ा, भटकन का कारण उसकी अपनी अनगढ़ता है। मानवीय प्रकृति की सूक्ष्मताओं के निष्णात के रूप में श्री रामकृष्ण परमहंस ने तथ्य को उद्घाटित करते हुए कहा है— "अनगढ़ता को दूर करने का उपाय है— विद्या। यह कुम्हार के चाक की तरह है जो अनगढ़ मिट्टी के लौंदे जैसे मनुष्यों को लेकर उन्हें चारित्रिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से खूबसूरत, सुडौल और उपयोगी बनाती है।"

ऐसी विद्या स्कूलों में नहीं मिलतीं। वहाँ मिलने वाली तो शिक्षा है, जो तमाम तरह की जानकारियों को ठूँस-ठाँसकर दिमाग को कबाड़खाना बना देती है। उन्हीं के स्वरों में इसे यों भी कहा जा सकता है— "यह नोचने-खसोटने वाली प्रक्रिया है, जिसकी एक ही परिणति है, जैसे-तैसे पेट भरना।" वर्तमान के क्षणों में उनकी यह बात कहीं अधिक व्यापकतर और ठोस सत्य के रूप में दिखाई देती है। मनुष्य ने अपनी इसी नोच-खसोट में जंगलों को तबाह किया, निरीह प्राणियों की निर्मम हत्याएँ कीं। जिस धरती ने उसे माँ की तरह अपनी गोद में आश्रय दिया, दुलराया, पाल-पोसकर बड़ा किया, उसे भी नहीं बख्शा। उद्देश्य एक ही रहा— पेट भरना, अपनी हविश पूरी करना। उदरपूर्णा के रूप में शिक्षा का दायरा इसी के लिए नित नई तकनीकें सुझाने तक सीमित रह गया है।

विद्या के आचार्य के रूप में श्री रामकृष्ण ने इसी कारण इसे अपने जीवन से बहिष्कृत कर दिया। कमारपुकुर से कलकत्ता आने पर उनके बड़े भाई रामकुमार ने उन्हें स्कूल में पढ़ाने की बड़ी कोशिश की। इस पर उन्होंने साफ इंकार करते हुए कहा— "दादा! मैंने अक्षरज्ञान पा लिया है, सत्साहित्य को पढ़ सकता हूँ, अब इस पेट भरने वाली शिक्षा को पढ़कर जिंदगी नहीं बरबाद करूँगा। मैं तो इंसान बनूँगा।" और वह जुट गए विद्या पढ़ने में, अर्थात अपने व्यक्तित्व को सँवारने में।

विनोबा जी उनकी इस बात को सराहते हुए कहते थे— "वह शायद इसीलिए विद्यावान बन गए, क्योंकि विद्यालय नहीं गए।" वह कहते— "आज विद्यालय का अर्थ है— जहाँ विद्या का लय हो जाए।" उन्हीं के शब्दों में परमहंस देव महाज्ञानी थे, वह शिक्षा के फेर में न पड़कर, शुरू से विद्या प्राप्ति में जुट गए। मुझे जरा देर में अक्ल आई, इसी कारण मैंने देर से शिक्षा से अपना पिंड छुड़ा पाया। उनके इस कथन की सार्थकता हम स्वयं के जीवन में तथा अपने चारों ओर निहार सकते हैं।

विद्या में स्वयं की पारंगता हासिल होने पर उन्होंने दक्षिणेश्वर मंदिर को विद्या-विस्तार का केंद्र बनाया। जुट गए इंसानों को गढ़ने में— विवेकानंद, अभेदानंद, ब्रह्मानंद जैसे चमचमाते खरे व्यक्तित्व ढालकर उन्हें जीवन विद्या के विस्तारक के रूप में समाज को समर्पित किया। उनकी नीति थी— साँचे के अनुरूप ढाँचा बनता है एवं व्यक्तित्व ढलते हैं। ब्रह्मानंद के शब्दों में— "ठाकुर हम लोगों से कहा करते। जब तुम सोलह आने बनोगे, तब तुम्हे ये लोग आठ आने अपनाने की सोचेंगे।" उनके ये शब्द आज भी लोक-शिक्षक के लिए कसौटी रूप में हैं।

उन दिनों स्वामी विवेकानंद एल.एल.बी के अंतिम वर्ष में थे। उन्हें लक्ष्य करके आत्मीयतापूर्वक उनने कहा— “क्यों रे नरेन! तू कब तक भटकता रहेगा। वकालत करके झूँठ-मूँठ पैसा कमाने के चक्कर में पड़ा तो तेरे हाथ का छुआ पानी नहीं पीऊँगा।” उनकी बात स्वीकार कर वह पूरी तरह विद्या के क्षेत्र में कूद पड़े। विद्या में निष्णात् हो, चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी बन जाने पर किसी ने ठाकुर से पूछा— "उनसे क्या कराएँगे”। गले में कैंसर होने के कारण वह बोल नहीं सकते थे। उन्होंने कोयले का टुकड़ा उठाकर जमीन पर लिखा— “नरेन शिक्षा दिबे"— नरेंद्र विद्या का शिक्षण देगा।

विद्या के आचार्यो को गढ़ने वाले इस महामानव की स्तुति में स्वामी विवेकानंद ने कहा है— "आचार्याणां महाचार्यो श्री रामकृष्णाय ते नमः।" निःसंदेह वह आचार्यों के महाचार्य थे। स्वामी जी कहते— "मेरे गुरु ने मुझे विद्या दी है। इसको पाकर में दार्शनिक नहीं हुआ, तत्त्ववेत्ता भी नहीं बना हूँ। संत बनने का दावा नहीं करता, परंतु मैं इंसान हूँ और इंसानों को प्यार करता हूँ।"

विस्तारक आचार्यों को एक बार फिर कहीं अधिक बड़ी संख्या में ढाला जा रहा है। यहाँ गढ़े गए यही युगाचार्य गाँव-गाँव के हर मंदिर को दक्षिणेश्वर में बदलेंगे, जनजाग्रति का केंद्र बनाएँगे। विवेकानंद के शब्दों में जनजाग्रति के इन्हीं केंद्रों से वे प्रकाश पुनः निकलेंगे, जो नवयुग की लालिमा को घर-घर पहुँचाकर असंख्यों का उद्धार करेंगे। अग्रदूतों की गणना में अपना नाम भी जुड़ सके, इसके लिए महाकाल की वाणी को सुनें, समय की महत्ता को पहिचानें और आगे की ओर कदम बढ़ाएँ। जीवन विद्या के आचार्य के रूप में ढलकर परिजन स्वयं का जीवन सार्थक अनुभव कर सकेंगे।

*समाप्त*


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