यदि दूर हो जाए बेहोशी तो

February 1990

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जेठ की तपती दुपहरी, उस पर क्षेत्र में छाया दुर्भिक्ष। गाँव के बाहर रास्ते में एक वृद्ध और एक किशोर मूर्छित हो पड़े थे। उनके कुम्हलाएँ चेहरे, धूल भरे पाँव देखकर यह पता लगता था कि वे जरूर काफी दूर से आ रहे होंगे। अशक्ततावश थककर गिर पड़े, मूर्छित हो गए; पर क्यों आई अशक्तता? क्यों गिरे? किसे परवाह थी? लोग आते, मुँह घुमाकर निकल जाते जैसे जीवित इंसान न होकर मशीनी पुतले हों। वे भले अपने को जीवित कहते रहे; पर उनके भीतर की मनुष्यता तो मूर्छित थी, अन्यथा भला इस तरह कैसे निकल जाते?

एक-एक करके न जाने कितने निकले। एक यह भी था; पर उनमें से नहीं, वह रुका, गौर से देखा; छाती की धड़कन, नाड़ी की गति वह बता रही थी कि वे जीवित हैं। एक-एक करके दोनों को पास खड़े छायादार वृक्ष के नीचे लाया, अपने लोटे से चेहरों पर जल छिड़का और अंगोछे से हवा करने लगा। एक मिनट, दो मिनट, पाँच मिनट बाद उन दोनों ने आँखें खोलीं। थोड़ी देर बाद उनके मुँह से वाणी निकली— अ-आप देवदूत हैं, मैं मर गया हूँ?” “नहीं! न आप मरे हैं और न मैं देवदूत हूँ। सिर्फ इंसान! इससे अधिक कुछ नहीं।”

अब तक वे होश में आ चुके थे। पूछने पर बताया— "हम दोनों बाप-बेटे सात-आठ मील दूर गाँव के रहने वाले हैं। काम की तलाश में निकले थे, घर में अन्न का दाना नहीं, हम दोनों के पेट में भी तीन दिन से एक दाना नहीं गया और इसकी माँ......; कहते-कहते बूढ़े की आँखें भर आईं, शून्य की ओर ताकने लगा।” “क्या हुआ उसको?”— युवक ने पूछा। "क्या बीमारी थी?" बीमारी थी— 'भूख'। भोजन का अभाव, काम का दबाव और चिंता इन्हीं यमदूतों ने उसे खा लिया।

पेट की क्षुधा, इसके निवारण के बगैर न तो कोई उपदेश अच्छा लगता है, न कोई ज्ञान सुहाता है। भगवान बुद्ध ने भी पहले रोटी, फिर उपदेश, सिफारिश की थी। युवक जैसे-तैसे दोनों को अपने घर ले आया। पत्नी से बोला— "देखो भक्त आए हैं।" खाट पर शिथिल पड़े बूढ़े ने कहा— "भक्त कहाँ हैं, भाई! हम तो भूखे हैं, सिर्फ भूखे?" "अरे! हर कोई भक्त होता है। कोई इसे जानकर तदनुरूप आचरण करता है, कोई न जानने और मानने के कारण हैरान, परेशान फिरता है।"

इस बीच पत्नी सारी स्थिति भाँप चुकी थी। भोजन तैयार था। अतिथियों के साथ पति को भी परोसा। क्षुधापूर्ति ने वृद्ध और किशोर की सारी पीड़ा हर ली थी। युवक ने अपने घर से उन्हें कुछ अनाज दिया। दिन भर विश्राम के बाद वे दोनों शाम को चले गए।

चले तो गए, पर कुछ छोड़ गए— एक पीड़ा, तड़प, कसक। वह सोचता रहा— "ऐसे न जाने कितने होंगे। न जाने कितनों की पत्नियाँ भूख के मारे मरती होंगी? कितनों को बेहोशी आती होगी? कौन करेगा इनकी मदद? वे जो स्वयं बेहोश हैं। "धन के नशे में, ताकत के गर्व में, अहंकार के गुस्से में?" "नहीं-नहीं! एक बेहोश दूसरे बेहोश की कैसे मदद कर सकता है? पर हम तो क्या, हम भी बेहोश हैं।" "नहीं तो", के विचार के साथ उसने सिर झटक दिया। आँखें फाड़कर अपने चारों ओर देखा।

पत्नी पास खड़ी उसका यह विचित्र व्यवहार देखे जा रही थी। उसने पूछा— "क्यों जी! बात क्या है?" प्रश्न के उत्तर में युवक ने प्रश्न किया— "क्या तुम बेहोश हो?" "नहीं।" "फिर क्या मैं बेहोश हूँ?" "नहीं।" "पर आपको हो क्या गया है?"— "कुछ नहीं, बेहोशी टूट रही है।"

“बेहोशी?” “हाँ? बेहोशी ही! अब तक बेहोश न होता तो मनुष्य की पीड़ा क्यों न अनुभव होती? इतने भूखों के रहते मैं कैसे चैन से खाता रहा? अरे! खाते-खाते उल्टी क्यों नहीं हो गई? इतने पीड़ितों के रहते दर्द से छाती क्यों नहीं फटी? सिर्फ इसलिए कि बेहोश थे?” “ठीक कहते हो”— पत्नी ने धीरे से कहा। "तो अब? कल से भंडारा चलाने का विचार है। भूखों को बटोरकर लाऊँगा, उन्हें खिलाने के बाद खाऊँगा।"

"विचार नहीं संकल्प कहो"— पत्नी का स्वर उत्साहपूर्ण था।

"संकल्प की पूर्णता के लिए कुछ और करना पड़ेगा; “बोलो! क्या सहमत हो?”

“पवित्र संकल्प की पूर्ति के लिए कुछ करने के लिए सहमत होने की बात करते हो? अरे! सब कुछ करने के लिए सहमत हूँ।”

सचमुच पति का स्वर उल्लासपूर्ण था। "तो हम जिम्मेदारी नहीं बढ़ाएँगे, बच्चे पैदा करने के मोह में नहीं पड़ेंगे। और? और क्या? आज की अपेक्षा कहीं अधिक किफायतशार बनेंगे, प्रभु-भक्ति के सिवा और कुछ न चाहेंगे।"

तभी तो पूरा हो सकेगा अपना संकल्प। संकल्प की शुरुआत का यह दिन था, माघशुक्ल द्वितीया संवत् 1871। उस दिन से पति खेतों में काम करता। पत्नी चक्की पीसती, आगंतुकों को बनाकर खिलाती। पति-पत्नी शाम होने पर बैठते, कथा-संकीर्तन के माध्यम से बताते, "मानव पीड़ा के निवारण में अपना सब कुछ होम देना भक्ति है।" कथनी-करनी की एकता ने अनेकों के जीवन बदले।

वर्षों यह क्रम अनवरत चलता रहा। एक दिन वृद्ध साधु आया। पत्नी पति की परमार्थपरायणता से इतना खुश हुआ कि आशीर्वाद में अपना झोली-झंडा देकर चलता बना। अब तक युवक भी वृद्ध हो गया था और इसकी पत्नी भी। उन्होंने झोली की स्थापना अपने आश्रम में की। मानो यह इस बात की प्रतीक हो कि जब इन पति-पत्नी ने अपना सर्वस्व जनसेवा में लगा दिया, तब झोली इतना उगलती है कि कमी का नामोनिशान नहीं। बोओ और काटो के शाश्वत सिद्धांत की प्रतीक बनी झोली। इसे चमत्कारी माना जाने लगा व झोली दे जाने वाले को भगवान। जो हो, उस स्थान की व झोली की पूजा होने लगी। वस्तुतः सिद्धांत चमत्कारी है और इस पूजा का तात्पर्य है— 'तदनुरूप आचरण।'

गुजरात के वीरपुर गाँव के ये भक्त दंपत्ति थे, जलाराम बापा और वीर बाई। जिनका कर्त्तृत्व हम सभी को आज भी झकझोरता है “बेहोशी छोड़ो होश में आओ”। होश में आ चुके हो तो सक्रिय बनो, सेवा करो। यदि इसमें जुट सके सारी कसौटियों पर अपने को खरा साबित कर सके, तो अकिंचन होने पर भी अनेकों कष्टों को दूर कर सकने में समर्थ हो सकेंगे। एक छटांक पीतल जब गलकर टोंटी में ढलती, नल से जुड़ती है, तो हजारों की प्यास बुझाती है। स्वयं भी ऐसे ही बनें। इसी बनने का नाम भक्ति है।


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