श्रम ही पर्याप्त नहीं (कहानी)

February 1990

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मनुष्य की याचना में सूझ-बूझ और दूरदर्शिता का दृष्टिकोण समाविष्ट रहने से ही देवाराधन के सत्परिणाम सामने आते हैं। देवताओं का काम ही देने का होता है, पर मनुष्य की अनभिज्ञता जैसी पात्रता को देखते हुए उनकी अनुकंपा व्यर्थ— निरर्थक ही साबित होगी। इस संदर्भ में एक जर्मनी पौराणिक गाथा बहुप्रचलित है। कई वर्ष पूर्व जर्मन राष्ट्र में फसल ठीक तरह से उग न पाने के कारण लोगों को खाद्य-संकट का सामना करना पड़ा। ग्रामीण जनता ने एकजुट होकर, ईश्वर से प्रार्थना की कि, एक वर्ष के लिए हमें उपयुक्त धूप और पानी मिले तो खाद्यान्न की समस्या का हल हो सके। ईश्वर ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मनोवांछित फल भी प्रदान किया; पर अनुदान माँगने के साथ अविवेक की दुष्परिणति को नहीं टाला जा सकता। फसल काटने के समय किसानों ने देखा कि न तो अनाज के पौधे ही पूरी तरह विकसित हो पाए हैं और न बालियों में दाना ही पड़ा है। फलदार पेड़ों पर पत्ते तो आए हैं, पर फल नहीं लग रहे हैं। निराश-हताश जनता ने परमात्मा से पूछा— "ऐसा क्यों हुआ?" आकाशवाणी हुई कि तुमने वर्षा और धूप के साथ तीव्र गति से चलने वाली उत्तरी हवा के झोंकों को माँगने के संबंध में असावधानी और अज्ञानता ही बरती, जिसके रहते परागण (पौलिनेशन) की प्रक्रिया किसी तरह संभव नहीं हो सकती थी। भगवान भक्त की पात्रता, प्रतिभा के अनुरूप ही अनुग्रह बिखेरता और जीवन को सफल-सार्थक बनाने में सहायक सिद्ध होता है। मात्र श्रम ही पर्याप्त नहीं।


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