मधु संचय (कविता)

February 1990

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अग्रदूतों से

बाँट दो अमृत उन्हें, भय मौत का जो सह रहे हैं।

दो उन्हें वाणी कहानी आँख से जो कह रहे हैं॥


है बड़ी उलझन, अँधेरों से बढ़ी आसक्ति सबकी।

आस भी रवि उगने की, पा चुकी नैराश्य कब की॥

ध्रुव बनो उन के लिए, पथ भ्रांति का जो गह रहे हैं॥


चपल मन की अज्ञता बहका रही है आदमी को।

और दिखता है न कोई जो हरे ऐसी कमी को॥

दो किनारा उन सभी को धार में जो बह रहे हैं॥


चक्र चिंता का बढ़ा और जिंदगी दूभर हुई है।

गहनता मस्तिष्क की छल, एषणाओं में छुई है॥

शांति मन की दो उन्हें इस ताप में जो दह रहे हैं॥


बात है अच्छी, भवन ऊँचे बनाए नई पीढ़ी।

पर न यह भूलें, शुरू होती कहाँ से प्रथम सीढ़ी॥

उन्हें भी गारा मिले बरसात में जो ढह रहे हैं॥

— माया वर्मा

संक्रांति वेला


हाथ पर यूँ हाथ धरकर तुम न बैठो,

सोच लो, अब यह समय संक्रांति का है।


कुछ-न-कुछ कर गुजरने को आ गई है,

दो सहस्राब्दियों की यह संधिबेला,

ठहर पाएगा नहीं तूफान में अब,

नींद आँखों में भरे कोई अकेला,


बस यही संकेत है मिलकर चलो तुम,

अब समय क्षण भर नहीं विश्रांति का है।

सोच लो, अब यह समय संक्रांति का है।


हर तरफ अब दृश्य ऐसा है, समय की

धार में बिगड़ा हुआ हर संतुलन है,

सब ढलानों पर फिसलते जा रहे हैं,

इस तरह निश्चित पराभव है पतन का,


सावधानी से तुम्हें हर पग बढ़ाना,

यह समय हर ओर घोर अशांति का है।

सोच लो, अब यह समय संक्रांति का है।


आत्मबल लेकर अगर तुम बढ़ सकोगे,

लक्ष्य पर ही दृष्टि यदि केंद्रित रहेगी,

तो समझ लो इस भयंकर धार में भी

नाव मनचाही दिशा में ही बढ़ेगी,


साथ हो संकल्प का संबल अविचलित,

यह समय बिलकुल न अब दिग्भ्रांति का है।

सोच लो, अब यह समय संक्रांति का है।


बस तुम्हारी इस समन्वित शक्ति से ही,

स्वर्ग का फिर अवतरण होगा धरा पर,

अनुप्राणित नवसृजन की चेतना से,

प्रीति का वातावरण होगा धरा पर,


फिर समझ लो, जो यहाँ आना समय है,

वह बहुत पावन सुनिश्चित शांति का है।

सोच लो, अब यह समय संक्रांति का है।

— शचींद्र भटनागर



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