जब गीतांजलि लिखी जा चुकी और रवींद्रनाथ ठाकुर को नोबुल पुरस्कार मिल चुका और सारी दुनिया में उनकी ख्याति के समाचार फैल गए तो उनके पड़ोसी एक बूढ़े ने रवींद्रनाथ से पूछा कि, "रवींद्र! क्या तुमने वास्तव में परमात्मा को जान लिया है? जैसा कि गीतांजलि में तुमने ईश्वर की प्रशंसा में गीत गाए हैं।” रविंद्रनाथ लिखते हैं कि, "प्रश्न सुनकर मैं चौंक पड़ा कि ऐसा तो मैंने सोचा तक नहीं था कि मुझे कभी कोई ऐसा प्रश्न पूछ लेगा तो मैं क्या उत्तर दूँगा? वे कितनी ही रातों सोए नहीं और लिखते हैं कि दुबारा वह बूढ़ा प्रश्न न पूछ ले, इसलिए उन्होंने उस गली का रास्ता ही बदल दिया। किंतु प्रश्न का उत्तर खोजे बिना रवींद्रनाथ को भी चैन नहीं था। नदीतट, सागरतट, वन-बीहड़ में घूमते उत्तर खोजते।
वर्षा के दिन थे, आषाढ़ का महीना, तालाब, पोखर, नदी, डबरे भरे-पूरे थे। प्रातःकालीन सूर्य की किरणें समुद्र पर बिखरीं। प्रतिबिंब डबरे, पोखर, नदी, तालाब, समुद्र में, सब में दिखाई दे रहा था। सब में सूरज झलकता था; किंतु सूरज न डबरे के जल से गँदला था, न समुद्र के जल से खारा। बस रवींद्र को परमात्मा समझ आ गया। वह सर्वशक्तिमान सत्ता, पापी, पुण्यात्मा, आकाश-पाताल के प्रत्येक जीव में विद्यमान है। वह न कभी अशुद्ध होती है, न समाप्त होती है। वे आगे लिखते हैं कि, "उस दिन के बाद मुझे बूढ़े को देखकर कभी डर नहीं लगा और उसकी सद्प्रेरणा से मुझे परमात्मा को समझने का मौका मिल गया, जो गीतांजलि लिखते समय नहीं मिल सका था।"