रामकृष्ण परमहंस के मिलने से पूर्व विवेकानंद महर्षि देवेंद्रनाथ से मिलने गए। देवेंद्रनाथ बड़े ज्ञानी-मर्मज्ञ पंडित थे। आधी रात गंगा में, बजरे में ध्यानमग्न महर्षि का दरवाजा खोला और विवेकानंद ने पूछा— "मैं आप से पूछने आया हूँ— क्या ईश्वर है?" मुझे स्वयं के अनुभव इस संबंध में बताएँ। मैं हाँ या ना से उत्तर चाहता हूँ।" महर्षि बोले— "बैठो! मैं तुम्हें शास्त्रों के अनुसार समझाता हूँ।" विवेकानंद बोले— "शास्त्र तो मैं भी पढ़ लूँगा। मैं तो आप की स्वयं की अनुभूति, स्वयं की शोध, स्वयं का निष्कर्ष सुनने आया हूँ। यदि स्वयं का कोई अनुभव आपके पास नहीं है तो मैं जाता हूँ।" और देवेंद्रनाथ जो इतने वर्षों से साधना करते आ रहे थे; हाँ न कर सके और विवेकानंद को लौटने से न रोक सके; किंतु विवेकानंद जब रामकृष्ण के पास गए और यही प्रश्न उनसे किया। उन्होंने आँखें खोलीं तो विवेकानंद की कँप-कँपी बँध गई। रामकृष्ण बोले— “ईश्वर है या नहीं, यह छोड़ो तुम्हें जानना है तो बोलो और अभी जानना है तो हाँ करो या ना करो; है या नहीं, ये सवाल बेकार है। विवेकानंद लिखते हैं कि उनकी हिम्मत ही न पड़ी कि फिर उलटकर उनसे पूछा जाए; क्योंकि वे वेद, उपनिषद्, शास्त्र, बुद्ध, कृष्ण की किसी की भी गवाही बीच में लाए ही नहीं। वे तो इस बात पर तुल गए कि जैसा मैंने अनुभव किया है वैसा तू भी कर, अभी कर, इसी क्षण कर। कहा जाता है कि काली का साक्षात्कार विवेकानंद को रामकृष्ण देव ने कराया था।