सतयुग की वापसी का राजमार्ग

February 1990

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पदार्थ-संपदा की उपयोगिता और महत्ता कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, पर यदि उसका दुरुपयोग चल पड़े तो अमृत भी विष बनकर रहता है। कलम बनाने के काम आने वाला चाकू किसी के प्राण हरण का निमित्त कारण भी बन सकता है। समर्थता, संपन्नता और चतुरता के नाम से जानी जाने वाली बलिष्ठता, संपदा और शिक्षा के संबंध में भी यही बात है। उनके सत्परिणाम तभी देखे जा सकते हैं, जब सदुपयोग का प्रयोग कर सकने वाली सद्बुद्धि को अहम भूमिका निबाहने का अवसर मिले। यहाँ इतना और भी समझ लेना चाहिए कि नीतिनिष्ठा और समाजनिष्ठा का अवलंबन अपनाए रहने वाली सद्बुद्धि की सत्ता, अपने आप में स्वतंत्र नहीं है। उसमें भाव-संवेदनाओं का पवन-प्रवाह ही भले-बुरे लगने वाले ज्वार-भाटे लाता रहा है।

मस्तिष्क आमतौर से सभी के सही होते हैं। पागलों और सनकियों की संख्या तो सीमित ही होती है। फिर अच्छे-खराब मस्तिष्क आदर्शवादी उत्कृष्टता क्यों नहीं अपनाते? उन्हें अनर्थ ही क्यों सूझता रहता है? उनके निर्णय, निर्धारण ऐसे क्यों कर बन पड़ते हैं? जिनके कारण सुविधा, प्रसन्नता और प्रगति जैसा कुछ बन पड़ना तो दूर, उलटे संकटों, विपन्नताओं, विभीषिकाओं का ही सृजन होता रहा है। इस तथ्य का पता लगाने के लिए हमें भाव-संवेदनाओं की गहराई में उतरना होगा और इसी तथ्य को समझना होगा कि उसमें श्रद्धा-संवेदना की शीतल, सरसता भरी रहने पर भी सदाशयता का वातावरण बना रहता है। यदि उसमें शुष्कता, निष्ठुरता का माहौल बन जाए तो समझना चाहिए, अब इस क्षेत्र पर आश्रित रहने वाले प्राणियों में से किसी के भी बच सकने की संभावना का समापन हो गया है। मानसिकता तो उस चेरी की तरह है, जो अंतः श्रद्धारूपी रानी की सेवा में हर घड़ी-खड़ी रहती है और हुक्म बजाने में आना-कानी नहीं करती।

स्वेच्छाचारी, बुद्धिमत्ता की दृष्टि में उन आदर्शों का कोई मूल्य नहीं, जो धर्मधारणा, सेवा-साधना उभारती, संयम अपनाने के लिए बाधित करती और क्षमताओं को पुण्य-परमार्थ के साथ नियोजित करती है। वह न केवल निरुत्साहित करती है, वरन प्रत्यक्ष घाटा पड़ने की बात कहकर उसके विपरीत विद्रोह भी खड़ा करती है। इसी मानसिकता को दूसरे शब्दों में कुटिलता, नास्तिकता, शालीनता को पूरी तरह समाप्त कर देने में समर्थ उपल वृद्धि के समतुल्य भी समझा जा सकता है। स्पष्ट है कि देवमानवों में से प्रत्येक को अपनी सुविधाओं, मनचली इच्छाओं पर अंकुश लगाना पड़ा है और उस बचत को उत्कृष्टताओं के समुच्चय समझे जाने वाले भगवान के चरणों पर अर्पित करना पड़ा है। लोक-मंगल के लिए, आत्मपरिष्कार के लिए अपनी क्षमता का कण-कण समर्पित करना पड़ा है। इसी मूल्य को चुकाने पर किसी को दैवी अनुग्रह और उसके आधार पर विकसित होने वाला उच्चस्तरीय व्यक्तित्व उपलब्ध होता है। महानता इसी स्थिति को कहते हैं। इसी वरिष्ठता को चरितार्थ करने वाले देवमानव या देवदूत कहलाते हैं।

तात्त्विक दृष्टि से यह प्रगतिशीलता, कुटिलता की पक्षधर बुद्धिवादी मानसिकता को तनिक भी नहीं सुहाती। इसमें उसे प्रत्यक्षतः घाटा-ही-घाटा दीखता है। अपना और दूसरों का जो कुछ भी उपलब्ध हो, उस सबको हड़प जाना या बिखेर देना ही उस भौतिक दृष्टि का एकमात्र निर्धारण है, जो जनमानस पर प्रमुखतापूर्वक छाई हुई है। संकीर्ण स्वार्थपरता, अभीष्ट उपयोग कि ललक उभरती है। उसी की प्रेरणा से वह निष्ठुरता पनपती है, जो मात्र हड़पने की ही शिक्षा देती है, जिसके लिए भले ही किसी स्तर का अनाचार बरतना पड़े। निष्ठुरता इस स्थिति की देन है।

दोष न तो विज्ञान का है, न बुद्धिवाद का। बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियों को भी वर्तमान अनर्थ के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यदि उपार्जन, अभिवर्द्धन का उपयोग सत्प्रयोजनों के लिए बन पड़ा होता तो उस बढ़ोत्तरी के आधार पर अपनी दुनिया को स्वर्गलोक से बढ़कर सिद्ध होने की चुनौती दी होती; पर उस दुर्बुद्धि को क्या कहा जाए जो पूतना, ताड़का, सुरसा की तरह मात्र अनर्थ संपादन पर ही उतारू है।

प्रदूषण, विकिरण, युद्धोन्माद, दरिद्रता, पिछड़ापन, अपराधों का आधार ढूँढ़ने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि उपलब्धियों को दानवी स्वार्थपरता के लिए नियोजित किए जाने पर ही यह संकट उत्पन्न हुए हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को चौपट करने में असंयम और दुर्व्यसन ही प्रधान कारण हैं। मनुष्यों के मध्य चलने वाले छल, छद्म, प्रपंच एवं विश्वासघात के पीछे भी यही मानसिकता काम करती है। इनमें जिस अवांछनीयता का आभास मिलता है; वस्तुतः वे सब विकृत मानसिकता की ही देन है।

यदि विकसित बुद्धिवाद का, विज्ञान का, वैभव का, कौशल का उपयोग सदाशयता के आधार पर बन पड़ा होता तो खाई-खंदकों के स्थान पर समुद्र के मध्य प्रकाश-स्तंभ बनकर खड़ी रहने वाली मीनार बनकर खड़ी हो गई होती। कुछ वरिष्ठ समर्थ कहलाने वाले लोग यदि उपलब्धियों को अपने लिए प्रयुक्त न कर रहे होते तो उस जंजाल से छूटी हुई प्रगति जन-जन के सुख-सौभाग्य में अनेक गुनी बढ़ोतरी कर रही होती। हँसता-हँसाता, खिलता-खिलाता जीवन जी सकने की सुविधा हर किसी को मिल गई होती; पर उस विडंबना को क्या कहा जाए, जिसमें विकसित मानवी कौशल ने उन दुरभिसंधियों के साथ तालमेल बिठा लिया जो गिरों को गिराने और समर्थों को सर्वसंपन्न बनाने के लिए बेहतर उतारू हों।

विकृतियाँ दीखती भर ऊपर हैं; पर उनकी जड़ अंतराल की कुसंस्कारिता के साथ जुड़ी रहती हैं। यदि उस क्षेत्र को सुधारा, संभाला, उभारा जा सके तो समझना चाहिए कि चिंतन, चरित्र और व्यवहार बदला और साथ ही उच्चस्तरीय परिवर्तन भी सुनिश्चित हो गया।

भगवान असंख्य ऋद्धि-सिद्धियों के भंडार हैं। उनमें संकटों के निवारण और अवांछनीयताओं के निराकरण की भी समग्र शक्ति है। वह मनुष्य के साथ संबंध घनिष्ठ करने के लिए भी उसी प्रकार लालायित रहते हैं, जैसे माता अपने बालक को गोदी में उठाने, छाती से लगाने के लिए लालायित रहती है। मनुष्य ही है, जो वासना, तृष्णा के खिलौने से खेलता भर रहता है और दुलार की ओर से मुँह मोड़े रहता है, जिसे पाकर वह सच्चे अर्थों में कृत-कृत्य हो सकता था, उसे समीप तक बुलाने और उस विभूतिवान का अतिरिक्त उत्तराधिकार पाने के लिए यह आवश्यक है कि उसके बैठने के लिए साफ-सुथरा स्थान पहले से ही निर्धारित कर लिया जाए। यह स्थान अपना अंतःकरण ही हो सकता है।

दिव्य सत्ताओं का द्विधा मिलन एक तीसरी दिव्य संवेदना कहलाती है, जो नए सिरे से, नए उल्लास के साथ उभरती है। यही उसकी यथार्थता वाली पहचान है, अन्यथा मान्यता तो प्रतिमाओं में भी आरोपित की जा सकती है। तस्वीर देखकर भी प्रियजन का स्मरण किया जा सकता है, पर वास्तविक मिलन इतना उल्लास भरा होता है कि उसकी अनुभूति अमृत निर्झरणी उभरने जैसी होती है। इसका अवगाहन करते ही मनुष्य कायाकल्प जैसी देवोपम स्थिति में जा पहुँचता हैं, उसमें हर किसी में अपना आपा हिलोरें लेता दीख पड़ता है और समग्र लोक-चेतना अपने भीतर घनीभूत हो जाती है। ऐसी स्थिति में परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ बन जाता है। यही है— मानव में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण।


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