मालिकी इसी आधार पर निभती है

February 1990

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एक विशाल कारखाने के मुख्य द्वार पर शानदार मोटर रुकी। उसमें से एक सज्जन उतरे। उनके कीमती वेश-विन्यास और हाथों की उँगलियों में चमकती हीरे की अँगूठियों को देखकर कोई भी समझ सकता था कि वह काफी रईस व्यक्ति है। उतरकर नपे-तुले कदमों से चलकर दरबान के पास आए। बोले— "मुझे फैक्टरी के प्रोप्राइटर से मिलना है।"

आशय समझकर उसने एक व्यक्ति को इशारे से बुलाया, कहा— "इन साहब को मालिक से मिलवा दो।" वह उन्हें लेकर विभिन्न इमारतों और गलियारों से गुजरता हुआ एक काफी बड़े हाॅल के पास पहुँचा, जहाँ से मशीनों के चलने की आवाज आ रही थी। वह दरवाजा खोलने वाला ही था कि आगंतुक ने पूछा— "क्या यही प्रोप्राइटर का ऑफिस है?" "जी नहीं।"

"तो ऑफिस की ओर चलो।"

“पर वह इस समय ऑफिस में नहीं मिलेंगे।" सुनने वाले ने सोचा— हो सकता है, कामगारों का काम देखने के लिए राउंड पर निकलते हों। दोनों अंदर घुसे। देखा— कुछ मिस्त्री लोग किसी पुर्जे को लेकर व्यस्त हैं। एक व्यक्ति उन्हें समझा रहा है, स्वयं करके मार्गदर्शन दे रहा है। "चलो, लौट चलो! मैंने शुरू में ही कहा था कि वह दफ्तर में मिलेंगे।"

“नहीं! लौटने की आवश्यकता नहीं है”। क्यों? "वह ये है"— मार्गदर्शन दे रहे व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए कहा।

"क..क.. क्या?"— उसने भौंचक्के होकर हकलाते हुए कहा। ऐसा लगा जैसे उसने दुनिया के सारे आश्चर्य एक साथ देख लिए हों। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि हाइड लैण्ड पार्क के पास खूबसूरत जगह में दो सौ एकड़ जमीन में फैले मोटर कारखाने, जिसमें पाँच सौ विभाग है। हजारों कर्मचारी काम करते हैं,— का मालिक इस तरह मिलेगा। इनके अनुसार तो उन्हें बेशकीमती कपड़ों, आभूषणों से लदे और आलीशान दफ्तर में जी हुजूरी करने वाले नौकरों की फौज से घिरे होना चाहिए; पर यहाँ तो सभी कुछ उलटा था। वह साधारण कपड़ों में श्रम में जुटे थे।

इसी सोच-विचार में कुछ क्षण बीते थे कि मार्गदर्शन कर रहे सज्जन ने सिर उठाया और बोले— "कहिए।" इस बीच एक मिस्त्री ने कुर्सी ला रखी और सम्मानपूर्वक बैठने का इशारा किया। आगंतुक सज्जन हिचकिचाते हुए बैठ गए। अभी भी उनकी भावमुद्रा देखकर लग रहा था कि वह आश्चर्य के समुद्र में गोते लगा रहे हैं। उन्हें उबारते हुए साधारण से लगने वाले व्यक्ति ने पूछा— “कैसे आना हुआ”?

जबाब में प्रश्न उभरा— “क्षमा कीजिए! मुझे आपको इस अवस्था में देखकर आश्चर्य हो रहा है। क्या आप मेरी जिज्ञासा को शांत करने की कृपा करेंगे?”

"अवश्य! इतनी बड़ी मिलकियत के बाद आप अभी भी इस कदर सादगी से रहते और श्रम करते हैं।" "हाँ! क्योंकि ये दोनों न होते तो इतनी बड़ी मिलकियत न होती।”

“पर अब तो इसकी जरूरत नहीं है" "नहीं! ऐसा नहीं। इमारत बनाने के पहले नींव को मजबूत किया जाता है; पर बन जाने के बाद इसकी आवश्यकता और बढ़ जाती है। उस समय यदि नींव को उखाड़ फेंका जाए तो भवन की सारी भव्यता मिट्टी का ढेर हो जाएगी।”

“सो तो है, पर आपके इस तरह मजदूरों के साथ काम करने और साधारण ढंग से रहने पर ये आपकी बात क्यों मानेंगे? मालिक और नौकर में एक फासला तो होना ही चाहिए।”

“आपका गलत ख्याल है; श्रीमान जी!। इनके साथ काम करने से मुझे इनका प्यार मिलता है। इन सबको भी कार्य करने में उत्साह रहता है। साधारण कपड़े, सादगी का व्यवहार इन्हें यह बताता है कि मालिक हमीं में से एक है। परिणामस्वरूप हम सबके बीच पारिवारिक रिश्ते हैं। मुझे भी इनकी जरूरतों का पता चलता है और उन्हें पूरा करता रहता हूँ। इनका भी सारी चीजों के साथ अपनत्त्व जुड़ा है, फिर तोड़-फोड़, हड़ताल की गुँजाइश कहाँ? इन सबके आत्मीयता भरे प्यार से मैं भी स्वयं को धन्य महसूस करता हूँ।”

“पर आपको तकलीफ तो होती होगी।” “तकलीफ नहीं, प्रसन्नता कहिए। कार्य करने से शरीर मजबूत और मस्तिष्क सदैव जागरूक बना रहता है। सादगी इस सक्रियता की गति को अनेकों गुना बढ़ा देती है। अन्यथा, विलासिता-अकर्मण्यता से वशीभूत होकर, अब तक बिस्तर में पड़े, जिंदगी के दिन पूरे कर रहा होता।”

आगंतुक सज्जन को बात समझ में आ चुकी थी। अब मुख्य मुद्दे पर आते हुए मोटर कंपनी के मालिक ने पूछा—“अरे! आप ने अभी तक यह नहीं बताया कि आप किस मकसद से आए थे?" "मैं स्वयं भी व्यापारी हूँ; पर इन दिनों कुछ परेशानी में हूँ। कर्मचारियों के साथ झगड़े, अनेकों समस्याएँ। देखना यह चाहता था कि आप सफलतापूर्वक अपना कारोबार कैसे चला रहे हैं। बस आपकी सफलता का रहस्य जानना चाहता था। तो यदि मेरी बात पर विश्वास कर सको तो किसी भी क्षेत्र में सफल होने का रहस्य है— सादगी और श्रम। दोनों एकदूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। श्रमशील यदि विलासी हो जाए तो पसीने की कमाई को यों ही कूड़े में डाल देगा और साधारण जिंदगी जीने वाला निठल्ला हो जाए तो उसके पल्ले सादगी नहीं, गरीबी पड़ेगी और वह फटे हाल बना रहेगा। सफलतारूपी सूर्य का प्रकाश है— सादगी और इसकी ऊर्जा-उष्मा है— श्रम।" कथन की समाप्ति पर उसकी और देखा।

उसने सिर हिलाते हुए कहा— "सारी बात समझ में आ गई। श्रमिक समस्या का हल भी समझ में आ गया और जहाँ तक विश्वास की बात है, विशालकाय फोर्ड कंपनी के मालिक— हेनरी फोर्ड के अनुभवजन्य कथन पर विश्वास न करूँगा तो किस पर करूँगा। सचमुच इसी के बलबूते आपने गरीबी से उद्योगपति बनने की यात्रा संपन्न की है। इतना ही नहीं, दूसरों का दुःख-दर्द समझने, दूर करने वाले सच्चे इंसान के रूप में स्वयं को गढ़ सके हैं।”

सादगी और श्रम के रूप में जीवन के इन अनमोल रत्नों को पा, वह चलता बना और हेनरी फोर्ड पुनः अपने काम में व्यस्त हो गए।


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