परिवर्तन होकर रहेगा

February 1990

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बदलते समय के अनुरूप अपने को बदल डालना ही उचित है। अपने को बदलने का मतलब पोशाक, रूप-सज्जा अथवा निवास बदलना नहीं है, बल्कि है— अपने व्यवहार का परिवर्तन, अर्थात उन क्रियाकलापों में आमूलचूल फेर-बदल करना, जिनका संबंध औरों से है।

आज के समय में सबसे बड़ी और सबसे भयावह समस्या एक ही है— मानवी व्यवहार का गड़बड़ा जाना। अंतःसंवेदना के मूर्छाग्रस्त हो जाने के कारण उसे औचित्य नहीं सूझ रहा। बुद्धि, नित नए समाधान खोजती है; पर किस लिए? सिर्फ इस हेतु कि स्वार्थ बरकरार रहे, साधन-सुविधाओं के लिए की जा रही नोच-खसोट, छीना-झपटी बनी रहे? अपने बौद्धिक होने के अहंकार और बढ़ती निष्ठुरता के कारण वह ऐसा कुछ कर रहा है, जिसे देखकर प्राचीनकाल के दैत्यों के दिल दहल जाएँ। जीवित बछड़ों का पेट फाड़कर तरल द्रव निकालने, हँसते-खेलते खूबसूरत खरगोशों को दबोचकर चीर-फाड़ देने जैसे नृशंस कृत्य सिर्फ इसलिए किए जाते हैं कि अधिक-से-अधिक फैशन का सामान बने और सुंदर दिख सकें। धन कमाने, वैभव जुटाने की सनक, यहाँ तक है कि किसी के घर-आँगन की खुशहाली नन्हें-मुन्ने बालकों को पकड़कर, उनके एक-एक अंग निकालने, बेचने का धंधा भी शुरू हो गया है। इनकी चीख-चिल्लाहट, तड़फड़ाहट के बीच वह इसलिए खुश होता है कि कमाई हो गई। यह सब और किसी का नहीं, उस मनुष्य का व्यवहार है, जिसे अपने बुद्धिमान और सभ्य होने का गर्व है।

प्रख्यात विचारक पाल टिलिच ने एक स्थान पर कहा है कि, "मनुष्य अपनी पहचान खो बैठा है। बौद्धिकता के बल पर अनेकों तरह की खोज-बीन करने वाला मानव कितना ही अभियान क्यों न करे; पर संवेदनाओं के क्षेत्र में वह पाषाणयुगीन मनुष्य से भी कोसों पीछे है।" श्री टिलिच अपने इस कथन के उपरांत आगे कहते हैं कि, "आज की स्थिति को प्रगति कहा जाए या पिछड़ापन? इसका जवाब हमें अपने अंदर ढूँढ़ना होगा।"

निःसंदेह व्यवहारसंबंधी दोषों, दुर्बलताओं, कमियों का एकमात्र कारण है— निष्ठुरता। ये गड़बड़ियाँ तब और अधिक त्वरित गति से बढ़ने लगती हैं, जब बुद्धि-खाद-पानी बनकर इसे पोषण देने लगे। डॉ. राधाकृष्णन 'द कन्सेप्ट ऑफ मैन' में इसी तथ्य को और अधिक उजागर करते हैं। उनके अनुसार, "विश्व के इतिहास से साफ जाहिर होता है कि जब कभी, जहाँ कहीं भी समाज टूटा-बिखरा है, उसका एक ही कारण है— मानव की व्यक्तिगत और समूहगत निष्ठुरता।"

अभी तक दिए गए समाधानों में रोग के कारण को न हटाकर सिर्फ रोग के चिह्नों को मिटाया गया है, इसीलिए सिर्फ एक या दो दशाब्दी अथवा शताब्दी बाद हर समाधान एक नई समस्या बन गया है। राजतंत्र को उलटकर प्रजातंत्र, साम्यवाद को उलटकर समाजवाद की स्थापना, यही है— "विश्व का इतिहास" पर क्या मनुष्य इस उलट-फेर में सुखी हो सका? नहीं! क्योंकि उसने अपने व्यवहार का प्रेरकतत्त्व नहीं बदला। निष्ठुरता के स्थान पर अंतःसंवेदना की स्थापना नहीं की।

यह स्थापना होते ही स्वयं का व्यवहार बदल जाएगा, गड़बड़ियाँ और दुर्बलताएँ स्वयमेव मुँह छुपाकर भाग जाएगी। कार्लयुंग अपनी किताब 'मार्डन मैन इन सर्च ऑफ सोल' में इसी तथ्य पर बल देते हैं। उनके अनुसार— "मनुष्य को अपनी आत्मा, जो मानवीय संवेदनाओं के रूप में है, को जगाना होगा। इस जागरण के बाद ही उसके व्यवहार में चिरस्थाई सुधार संभव हो सकेगा। सारी उलट-फेर अपने आप हो जाएगी। स्वार्थ उलटकर परमार्थ, बुद्धि को विवेक, ध्वंस को सृजन, क्रूरता को दयालुता में बदलते देर न लगेगी।"

कैसे होगा यह चमत्कार? इस संबंध में एक ऐतिहासिक घटना है। विजयनगरसम्राट, कृष्णदेव राय ने अपने गुरु संत कनकदास से पूछा— "महाराज! भगवान गज को बचाने स्वयं क्यों दौड़े? दौड़े भी थे तो सवारी क्यों नहीं ली?" संत दूसरे दिन समझाने का वायदा कर चले गए। दूसरे दिन उन्होंने नवजात राजकुमार को ठीक वैसी प्रतिमा बनवाई। गोद में खिलाते हुए राजमहल के तालाब के पास आए, राजा भी पास ही थे। उस कृत्रिम प्रतिमा को उन्होंने धीरे से तालाब में डाल दिया। नकली राजकुमार के गिरते ही राजा कूद पड़ा, बहुत देर बाद जब वह निकला तो राजकुमार की प्रतिमा उसके हाथ में थी। अपनी बेवकूफी पर कुछ खिन्न भी था। संत ने कहा— "उत्तर मिला सम्राट? अंतःसंवेदना का जागरण इसी कदर बेचैनी उत्पन्न करता और व्यवहार को बदलने के लिए बाध्य करता है। फिर भगवान तो संवेदनाओं के घनीभूत रूप हैं।"

अगले दिनों यही चमत्कार घटित होने वाला है। वर्तमान की स्थिति से इसी के बल पर उबरा जा सकेगा। ईशोपनिषद् कहता है— 'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्या विहितं मुखं सत्य',  अर्थात मानवीय आत्मा अंतःसंवेदना का मुख बौद्धिकता-निष्ठुरता के चमकीले चका-चौंध वाले बर्तन से ढका है। इसी कारण मनुष्य कटीली झाड़ियों में उलझकर रह गया है। निष्ठुरता हटते, बौद्धिक चका-चौंध के उलटते ही अंतःसंवेदनाओं का निर्मल आलोक फैलेगा।

उज्ज्वल भविष्य की समस्त संभावनाओं का आधार यही है। अगले दिनों किसी को उन्मादी, मनोमलीन, उद्विग्न-विक्षिप्त दशा में रहना स्वीकार न होगा। जाॅन रसेल का 'द टास्क ऑफ रेशनलिज्म इन रिट्रोस्पैक्ट एण्ड प्रोस्पेक्ट' में कहना है कि प्रत्येक व्यवहारविज्ञानी ईसा, फ्रांसिस, संतपाल, गाँधी, बुद्ध व्यवहार को ललचाई नजरों से देखता है। हिटलर, मुसोलिनी जैसों को व्यवहार के कलंक के रूप में देखता है; पर उसे नहीं मालूम कि व्यवहार के कलंक को कैसे धोया जाए और उसकी ऊँचाइयों को कैसे पाया जाए? समाधान एक ही है— भाव-चेतना का जागरण। इसे आत्मजागरण कहें या उच्चतर जीवन के प्रति अभीप्सा। व्यवहार को सुधारने, बदलने, सँवारने का उपाय यही एक है। फ्रांस के कुख्यात डाकू फैकुइस डी विलेन इसी के बल पर अपने को परिवर्तितकर मर्मस्पर्शी साहित्य के सृजेता बन सके।

परिवर्तन न केवल संभव है, बल्कि होकर रहेगा। इन दिनों नियंता कुम्हार की तरह अपने कालचक्र तेजी से घुमा रहा है। उद्देश्य एक ही है— नए युग के अनुरूप नए मनुष्य गढ़ना। आज के मानव समूह के अंदर से ही वे नररत्न तैयार किए जाने हैं, जो भावी युग के आभूषण होंगे। समय आने पर भारी-भरकम काम भी अल्प प्रयासों से हो जाते हैं। आँधी आने पर तिनका भी मीलों उड़ जाता है। समय को पहचानें; स्वयं को बदलने के लिए उठ खड़े हों। स्वार्थी का लबादा उतार फेंकते ही साफ अनुभव हो सकेगा कि हम मिमियाने, घिघियाने, दरबदर ठोकरें खाने वाले मेमने नहीं, विश्वहित में कुछ कर गुजरने वाले सिंह हैं।

कराह रही मानवता के घावों पर मरहम लगाने के लिए जब अंदर बेचैनी, छटपटाहट अनुभव होने लगे तो समझना चाहिए— राजकुमार सिद्धार्थ के भीतर से लोक-वरेण्य भगवान तथागत जन्म लेने वाले हैं। बैरिस्टर गाँधी के अंदर से विश्वबंधु महात्मा उभरने वाला है। कहाँ से उभरेगा-जन्मेगा यह सब? सिर्फ हमारे अंतराल से। महानता-दिव्यता तो उभरने, जन्मने के लिए आतुर है, आकुल-व्याकुल है ही। तैयारी तो हमें अपनी करनी है, परिवर्तन तो होकर रहेगा।


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